हे कुर्सी!
हे कुर्सी !
तेरी महिमा अपरम्पार है
तेरे ही कारण समाज में
बेईमानी व भ्रष्टाचार हैं
परिवारवाद की जड़ तू है
बुराईयों की गढ़ तू है
ऊँचा-नीचा, अगड़ा-पिछड़ा
धरम-जाति का हर लफ़ड़ा
तुमनें ही फैलाया है!
तुम्हारी चाहत में “नेता”
असुर बनने को आया है।
– ✍️अटल©