हे अब्धि! तुम कुपित न होना।”
हे अर्णव ! सरिता के प्रियतम
तटिनी के बहाव के विराम हो तुम।
नीर संग स्वीकारते हो तुम
नदियों के सकल खुशियाँ और गम।
हे समुद्र!
कहलाते नीरनिधि और इसीलिए तो
सरिताएं सह जल प्रवाह
समाहित हो जाती अंक में तुम्हारे
संग निज गुण-अवगुण के ही
जो परिलक्षित होता जल के साथ
कृषि व औद्योगिक अपशिष्ट के रूप में भी।
तुम्हारे जल में है प्लास्टिक अधिक
और मत्स्य हो रही हैं कमतर।
अनावृष्टि अथवा ओजोन
व्यग्र व्यथित करती नदीश तुम्हें।
प्रदूषण से तिल-तिल मृतप्रायः हो रहे हो
तुम सारे समुन्दर।
जहाजों के तेल रिसाव से भी
हो रहे तुम प्रदूषित
सुनो ओ रत्नाकर!
करने होगें यत्न कुछ हमें
अपने प्रिय “पारावार” के जीवन रक्षार्थ
पृथक-पृथक करें जल शुद्धिकरण
तुझसे आलिंगन बद्ध होने से पूर्व ही
हरेक सरिता का
ताकि मुक्ति मिले तुम्हें प्रदूषण से।
पोत बचें तेल रिसाव से,संभलें और सुधर जाएं।
नाभिकीय कचरे से
सिन्धु को बचाएं।
बन जाएं सामुद्रिक जीवों के रक्षक
प्रकृति पर कहर न ढाएं।
आओ! हम सब मिल सुप्रयासों से
सृष्टि पर माँ वसुंधरा के अद्वितीय आभरण
और सुन्दरतम उपहार”पयोनिधि” का
जीवन करें संरक्षित,
जिसमें है हम प्राणियों का कल्याण भी सन्निहित।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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