हूक
निरंतर दुष्चिंताओं मे
घिरे हुए मस्तिष्क में,
दुष्चक्र तुम्हें छीन न ले,
ये बात कौंध जाती है।
जड़वत हो जाता सब
सिहरन सी छा जाती है।
इक हूक सी उठती है
रह रहकर कलेजे में
पोर पोर तन में सब
वेदना भर जाती है ।
कोरों तक भरे दृग
ढुलककर भी शेष है ।
श्वांसें सभी अब
उच्छवास हुई जाती हैं ।
मन यूं उद्वेलित
कि आबद्ध कण्ठ है
मस्तिष्क की नसों तक
चीत्कार गूंज जाती है ।
हासिल अभी तक जो
छूट रहा हाथ से
किश्तें इस समय की
भरी नहीं जाती हैं ।