हिसका (छोटी कहानी) / मुसाफ़िर बैठा
बुधन चमार जैसे तैसे पढ़ लिख कर एक सरकारी स्कूल में मास्टर बन गया। पहले पहल ही घर से काफी दूर पोस्टिंग मिली थी। नया था, सो मन लगाकर पढ़ाता था। बहती हवा में घुली महक की तरह उसका यह यश शीघ्र ही स्कूल के समीपवर्ती गांवों में भी फैल गया। स्कूल वाले गांव की बगल के एक नामीगिरामी सामंती गाँव के एक जमींदार की हैसियत वाले भूपति सवर्ण ने उसे अपने दरवाजे पर घर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिए रख लिया। भूपति के यहां एक बंधुआ मजदूर काम करता था जिसका नाम था धनेसर। हालांकि यह बात दीगर है कि उसके नाम और उसकी हैसियत में स्पष्टत: छत्तीस का आंकड़ा था। धनेसर मास्टर साहेब को खड़ाऊँ पहने देख अचरज करता था। ललच गया वह। एक दिन धनेसर से रहा न गया, हौले से वह दालान पर जाकर इधर उधर ताक और मास्टर को अकेले पाकर उनसे बोल बैठा, “मास्टर साहब! इस बार जब अपन घर जाइएगा तो हमरा लिए भी अपने घर से आप एक जोड़ा खराम लेते आइएगा। हम खराम कभीयो नहीं पहना ना, से हमरा भी पहनने के मन करता है।” मजदूर धनेसर की यह बात आसपास से गुजरता उसका मालिक (भूपति) अनचटके में सुन लेता है। वह उसके सामने नमूदार होता है और आंखें तरेर कर गुर्राता हुआ चीखता है – “ऐं रे धनेसरा! क्या कह रहा था तू; जरा एक बार फिर से बोलना। हरामजादा! अपनी औकात पता भी है तुमको! कमबख्त, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की कि मैं भी खड़ाऊँ पहनना चाहता हूं।” वह क्रोध से कांप रहा था – “चोट्टा कहीं का! मास्टर का हिसका करता है? मास्साहेब का तो अब रहन ही बदल गया है। देखने से कौन कहेगा उनको कि वे हरिजन हैं! तभी तो मैंने उनको अपने दरव्वजे पर रख भी लिया है! गुण की कद्र तो करनी ही पड़ती है! तू मास्साहेब की जात का है तो क्या हुआ, तुम्हारा रहन सहन काम धाम तो नहीं बदला! आगे हिर्सा हिर्सी वाली बात की, फिर से मास्साहेब से कोई हिसका किया तो चमड़ी उधेड़ कर रख दूंगा तेरी, समझे?”
बाद में भूपति ने मास्टर से पूछ लिया था, “आप ने खड़ाऊं पहनना कैसे शुरू कर दिया मास्टर साहब? छोट जात में तो इसका चलन है नहीं? यह तो हम बड़का जात वालों की सांस्कृतिक आमद है!” एक पल को मास्टर को जैसे काठ मार गया हो यह सब सुनकर। रुंधे गले से खखार करते हुए अपने समूचे आत्मबल को बटोरकर कंपकंपाती जुबान में किसी तरह उसने बोलने की हिम्मत जुटाई। और डरते डरते कह डाला – “हुजूर, बढ़ई टोली में मेरा घर है। बचपन तो रुखानी-बसूला खटखटाते हुए बढ़ाई-बच्चों के साथ बीता। बचपन से ही खड़ाऊँ पहनने की आदत भी लग गई। खड़ाऊं पहनते पहनते तो अंगूठों में दाग भी पड़ गए हैं।” मास्टर ने अपने पैरों की तरफ अपनी उगलियों के भयसिक्त इशारे के सहारे से भूपति का ध्यान खींचना चाहा। “तो बचपन में ही गलत आदत पड़ गई थी आपको” – कहते हुए भूपति ठठाकर हंस पड़ा और अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए वहां से चला गया।
अगले ही दिन भूपति ने मास्टर के लिए अच्छे ब्रांड की एक जोड़ी चप्पलें मंगवाईं और मास्टर के हाथ में थमाते हुए आवाज नरम कर के कहा, “मास्टर साहेब! आप जैसे जवान, नए जमाने के आदमी को खड़ाऊँ जैसी पुरानी चीज पहनना शोभा नहीं दे रहा था। अब से यह चप्पल ही पहनिएगा। ऐसी पुरानी आदतों का संस्कार जरूरी है!”
आगे भूपति ने मंजूर धनेसर को तेज आवाज में लगभग चीखते हुए पुकारा, “कहाँ है रे धनेसरा! इधर सुन! ले जा इस खड़ाऊँ को। इसे अब मास्टर साहेब ना पहनेंगे। जा, इसी वक्त इसे चीर-फाड़ कर आग के हवाले कर आ।”
भूपति की मूंछों पर अब विजयोन्मादी सामंती सवर्णी मुस्कान काबिज थी और उसकी मूंछों की ऊर्ध्वाधर ऐंठन कुछ और ही गहरी हो गई थी।
【Note : यह छोटी कहानी ‘जसम’ की पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ में प्रकाशित एवं कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाहा द्वारा सम्पादित ‘जाति दंश की कहानियां’ पुस्तक में संकलित है।)