हिम्म़त और म़ेहनत
खोजता क्या है अपने हाथों की लकीरों में मुक़द्दर।
वो तो बदलेगा जब होगी तुझमें जुऩूने मश़क्कत । वक्त से पहले कुछ भी मय़स्सर नहीं होता ।
ग़र लाख कोशिश करें इंसां बिन मेहनत नस़ीब नहीं जागता।
मत कर तलाश तू मसीहा इस इंसानी भीड़ में ।
मसीहा तो बसता है तेरे ज़मीर में ।
जगा कर देख ज़रा पायेगा तू उसे क़रीब अपने ही दिल में ।
स्य़ाह ग़मगीन रातों के बाद ख़ुश़नुमा चाँदनी रातें आएगी ।
ख़िज़ां के गम़ज़दा म़ाहौल के बाद मस़ऱर्त की फ़िज़ा लिए बहार आएगी ।
सब्र की लग़ाम थाम कर तू आगे बढ़ता चल रख बुलंद अपने हौस़ले ।
तय कर पाएगा तभी तू हर फासले।
हालातों के भंवर और ज़ुल्म औ़ अल़म से जूझने की तेरी ये हिम्मत ।
ले जाएगी तुझे वहां जहां होगी तमाम खुशियां और रूहानी सुकूँ की नैम़त।