हिमालय
कुंदलता सवैया ( 8 सगण 2 लघु)
चलते नित हैं सत् के पथ में,
फिर हो किस भांति हमारी पराजय।
जिस ठौर रहें सब ताप सहें,
कुछ भी न कहें निर्लेप निरामय।
दिन रात लिए व्रत अंगद सा,
हम नाहिं करें क्षण को भी जरा भय।
नभ से कर बात खड़ा तनके,
प्रहरी बनके गिरिराज हिमालय।