! हिमालय हितैषी !!
उद्गम-संगम संस्कृति-सभ्यता का
उत्थान को युगों से यहां विराज।
सदृश ऊंचा हो ये मानुष मस्तक
यहां स्वयं खड़ा जग नगाधिराज।
टेथिस सागर था कभी तो यहां
यह जान के होता हूं रोमांचित।
कल कहे कभी हिमालय था यहां
कल्पना मात्र से होता हूं चिंतित।
मानुष-अमानुष के करने-धरने से
बढ़ता पाप-ताप और घटती ठंड।
आज रहा हिल हिम का आलय
क्षण-क्षण में क्षरण होते हिमखंड।
वे हिम को-हम को बचाने की
मैं हिमालय बचाने की कहता हूं।
‘आरम्भ है अस्तित्व है हिमालय’
मैं भी तो यही बताते रहता हूं।
तुम ग्लेशियर सूखने से डरते हो
मैं गले सूखने से भी डरता हूं।
हिम गले तो सूखे गले तो होंगे
सूखे नदियां ये सोच सिहरता हूं।
तुम विलुप्त सरस्वती रहे ढूंढ़ते
मैं सुप्त सदानीराएं देखता हूं।
ये जल निर्जल जलधाराओं की
होती शुष्क शिराएं देखता हूं।
गलन-पिघलन घटन-विघटन से
एक-एक पर्वतधवल होता नंगा।
जब ऐसे ह्रास होगी हिम राशि
तब कैसे बहेगी ये यमुना गंगा।
वो कटि प्रदेश हिमाल संजोए
ऑचल में जीवन जंगल जल।
जब आग दावानल दानव बने
तो ये हरे-भरे जाते जंगल जल।
बढ़ते ताप से फिर आंसूओं की
हिमनद बहाता हताश हिमालय।
चुपचाप संताप ताप सहता रहे
ये कैसी प्रकृति की टूटती लय।
बढ़ते त्रुटि-तृष्णा,ताप-तिरस्कार से
पल-पल हो रहा हिम का विलय।
क्षणिक वणिक मणिक स्वार्थ में
हे मानव ! क्यूं ला रहे हो प्रलय।
ये सारे संकेत, समय समझना है
अब हरसंभव हिमालय बचाना है।
शक्ति-आसक्ति, इच्छा शक्ति बढ़ा
हृदय से हिमालय-हितैषी बनना है।
तुम शुभ शुभ्र तुम कीरिट सुमेरु
तुम प्रेरक तुम मानक नित नूतन।
तुम प्रहरी तुम प्रियहरि गगनगिरि
मेरी कामनाएं रहो चिर सनातन।
~०~
नवंबर, २०२४. ©जीवनसवारो