” हिमालय से मेरे बाबू “
हम बचपन में सब बाते अम्माँ से मनवाते
अपनी दिल की सारी बातें उन्हीं से कह आते
अम्माँ हमेशा हमें मजबूत खंबे सी लगतीं
लेकिन अम्माँ के पीछे हम बाबू को खड़ा पाते ,
बाबू हमारे स्कूल नही कभी जाते थे
हमारे वार्षिकोत्सव में नही कभी आते थे
हमेशा आगे की पंक्ति में अम्माँ ही दिखती थीं
लेकिने अपनी सहमति के साथ उनको बाबू ही तो भेजते थे ,
हमें कभी कोई रोक – टोक सी नही थी
कभी कोई बंदी – पाबंदी भी नही थी
सारे बंद दरवाज़े अम्माँ ने ही खोला था
लेकिन दरवाज़े की सांकल बाबू ने ही तो गिराई थी ,
हम लड़कियाँ है इसका एहसास हुआ ही नही
लड़कों से अलग हैं ये एहसास छुआ भी नही
आधुनिकता का पाठ अम्माँ ही तो पढ़ाती थीं
लेकिन वो पाठ बाबू से ही तो पढ़ कर आती थीं ,
हम भाई – बहन जब लड़ते थे
नही हम – सब जब पढ़ते थे
तब अम्माँ ने ट्यूशन लगवाई थी
लेकिन ट्यूशन की बात उनको बाबू ने ही तो समझाई थी ,
उस उम्र में हम जो थोड़ी सी भी ग़लती करते थे
बड़ों की किसी बात को अनसुनी करते थे
अम्माँ अनुशासन की दिवार सी बन जाती थीं
लेकिन उस दिवार का तो गारा बाबू ही बनते थे ,
हम ज्यों – ज्यों बड़े होने लगे
तब त्यों – त्यों हम समझने लगे
हमारी अम्माँ तो एक माध्यम थीं
लेकिन उस माध्यम का संबल बाबू हिमालय से लगने लगे ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 21/06/2020 )