हिन्दी
हिन्दी, माँ है हमारी
रग रग में रची बसी
अस्तित्व, पहचान है हमारी ।
गर्भ से ही ये भाषा ध्वनियाँ
कानों से होते हुए
हृदय, मस्तिष्क में पैठ बना चुकी।
यह हमारे असीम भावों की
सहज, सरल परिभाषा है ।
हिन्दी न केवल राष्ट्रभाषा
अपितु हमारी मातृभाषा है ।
यह सार्वभौम है जीवन पर्यन्त
हम हिन्दवासियों में ।
परे है इसकी सत्ता
काल या दिवस के सीमांकन से ।
हम खो न जाएं इस वैश्वीकरण में
इसलिए माँ का हाथ थामे रहना है ।
माँ की समृद्धता से ही
हम सामर्थ्यवान हो पाएंगें ।
किन्तु माँ से जुड़ने का तात्पर्य
अन्य सम्बन्धों की अवहेलना नहीं ।
हर माँ चाहती है
उसकी संतान का विस्तृत आकाश ।
तो हिन्दी की समृद्धता में
आंग्ल या अन्य भाषा की अवहेलना क्यों ?
हमें सबसे परिचित होकर
सबका समान आदर करते हुए
स्वयं को और भी पुष्ट व विस्तृत कर
भारत माँ का भाल समुन्नत करना है ।
हमारी माँ भारती भी तो
सभी का आदर व स्वीकार्यता
स्वयं धारकर यही सिखलाती है,
हमें माँ का ही अनुसरण करना है ।