हिन्दी व्यथा की कथा
हिन्दी की व्यथा की कथा>14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष
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September 09 2018 लेखक > करुणा निधि ओझा 8090232543
दुविधा यह कत्तई नही है कि हम हिन्दी को हिंदी लिखे या हिन्दी, अपनी सुविधानुसार हम इसके परम्परागत या आधुनिक रूप को अपना सकते है . किन्तु व्यापक चिंतनीय विषय यह है कि हिन्दी जो संस्कृत -प्राकृत से विकसित भाषाओं की सिरमौर है, और जिसका आविर्भाव आज से 1100 साल पूर्व हुआ था , और जो तब से अब तक बहुसंख्यक भारतीयों की जबान रही है , जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विधिपूर्वक संविधान में राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है , जो विश्व की दूसरी सबसे बड़ी मातृभाषा है , और बोलने के लिहाज से विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है , इन सभी विशेषताओं से विशिष्ट होने के बावजूद क्या यह अपने वास्तविक यथोचित स्थान पर स्थापित हो पायी है या नही ? यदि नही तो इसके पीछे के कारणों का निराकरण कौन और कब करेगा , जिससे इसकी हीनता, दीनता और लघुता को खत्म करके इसके अवरूध्द प्रवाह को प्रवाहित करके इसे सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य बनाने का पथ प्रशस्त किया जा सके . हिंदी के उन्थान के लिए इसका दायरा बढ़ाकर व्यापक करना होगा जो कपोल कल्पना मात्र से सम्भव नही है . सैद्धांतिकता के साथ साथ व्यहरिकता की भी जरूरत होती है किसी एक के अभाव में लक्ष्य हासिल करना अत्यन्त दुरूह और संदेहास्पद होता है .
हिंदी की दुर्दशा और दीनता के लिए हमारे राजनेता कम जिम्मेदार नही है . इन लोगो ने हिन्दी की महत्ता को बढ़ाया नही बल्कि घटाया है . हमारे नेताओ ने हिन्दी को तवज्जो न देकर अंग्रेजी को तरजीह देने का काम किया है जिसके परिणामस्वरूप भाषा की दृष्टि से लघुता और महत्ता के विस्तार और संक्षेप का आधार बनाया गया . हिन्दी के उत्थान और विकास के लिए जितने साधनों , संसाधनो अथवा स्रोतों के माध्यम का उपयोग होना चाहिए था उतना हो नही पाया , जिससे हिंदी को वह मुकाम हासिल नही हो सका जिसकी यह हकदार थी . हिंदी राजभाषा होने के बावजूद, सरकारी और गैरसरकारी कार्यालयों के कामकाजों के सम्पादन की भाषा नही बन पायी है . जबकि अंग्रेजी और अन्य भाषा की अपेक्षा हिंदी भारत की बहुसंख्यक लोगो की भाषा होने के साथ ही पूरे देश में और सभी क्षेत्रो में इसका प्रचार प्रसार अधिक है . भारत के संविधान में अंग्रेजी की जगह हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है बावजूद इसके अधिकांशतः सरकारी कार्यो का सम्पादन अंग्रेजी में ही होता है .
जिस तरह किसी स्वतंत्र और संप्रभुतासम्पन्न राष्ट्र का एक राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान होता है , उसी तरह राजभाषा भी होती है जो उस देशवाशियों के भावनात्मक लगाव और जुड़ाव के लिए महत्वपूर्ण आवश्यक उपादान होता है . 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय पारित किया कि भारत संघ की राजभाषा हिंदी होगी , किन्तु तब से लेकर आज तक हिंदी राजभाषा के रूप में अपनी संवैधानिक स्थिति को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है जिसका दिलचस्प प्रमुख कारण हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दे दिया जाना है . यही से हिंदी की व्यथा की कथा आरम्भ हो जाती है . भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 की धारा 1 के अनुसार देवनागरी लिपि सहित हिंदी 26 जनवरी 1950 से भारत संघ की राजभाषा तो बन गयी , किन्तु साथ ही उसी अनुच्छेद की धारा 2 के अनुसार अंग्रेजी को भी संविधान लागू होने से 15 वर्ष तक के लिए राजभाषा बना दिया गया. इस प्रकार अनुच्छेद 343 की धारा 1 द्वारा प्रदत्त हिंदी का राजभाषा होने का अधिकार उसी अनुच्छेद की धारा 2 से निरस्त हो गया . इसके अलावा उसी अनुच्छेद की धारा 3 में यह प्रावधान कर दिया गया है कि 15 वर्ष के उपरांत राजभाषा के सम्बन्ध में संसद द्वारा उचित कानून बनाया जायेगा . इतना सब कुछ हिंदी के मान मर्दन के लिए पर्याप्त था ,तथापि मई 1963 में राजभाषा संशोधन विधेयक द्वारा 1965 के बाद भी अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए राजभाषा के रूप में मान्यता दे दिया गया , साथ ही यह प्राविधान जोड़ दिया गया कि जब तक अहिन्दी भाषी नही चाहेगे तब तक अंग्रेजी राजभाषा के रूप में बनी रहेगी . लेकिन जब हमारे इन सम्मानित माननीयो का जी इतने से नही भरा तो 1967 में राजभाषा से संबंधित एक और संशोधन विधेयक पेश किया गया जिसके द्वारा अंग्रेजी की स्थिति को और मजबूत बना दिया गया है . इसके अनुसार राजभाषा के रूप स्थापित अंग्रेजी को हटाने के लिए संसद में तब तक विचार नही होगा जब तक सभी अहिन्दीभाषी राज्यों की विधानसभा में अंग्रजी को हटाने के लिए प्रस्ताव पारित नही हो जाते .
अब जरा सोचिये क्या ऐसे कानूनों और प्रावधानों के रहते कभी हिंदी देश की प्रमुख राजभाषा बन पायेगीं . यह बिडम्बना ही है कि अंग्रेजी को हिंदी राजभाषा की सहचरी भाषा के रूप में स्थापित करके हिंदी के तेज़ को निस्तेज करने का काम हमारे देश के राजनीतिज्ञों के द्वारा ही किया गया है . जब संविधान में हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी का विकल्प मौजूद है तो सरकारी विभागों में धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग तो होगा ही . इसके अलावा लोगो की रूचि भी हिंदी में कामकाज करने की कम होती है जिसके कारण हिंदी उपेक्षा की शिकार बनी रहती है , ऊपर से हिंदी और अंग्रेजी को लेकर विरोध प्रतिरोध के कारण भी हिंदी की दुर्दशा बढ़ी है . इन सब कानूनों पर सम्यक विचारोपरांत निष्कर्ष यही निकलता है कि अभी निकट भविष्य में हिन्दी का राष्ट्रभाषा होना दिवास्वप्न है . इस निराशा में भी आशा की किरण झलक कर टिमटिमा रही है क्योकि संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है और सभी सरकारी क्षेत्रो में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है जो हिंदी के उज्जवल भविष्य के लिए शुभ संकेत है .
हिंदी अपनों के द्वारा ही छली गयी है , अपने ही बेगाने बनकर इससे मुंह मोड़कर इसके सहचरी भाषा को आत्मसात करने में लगे लगे है . कभी हिंदी के साथ उतनी होड़ नही दिखी जितनी कि अंग्रेजी में विशेज्ञता और निपुड़ता हासिल करने की होड़ दिखती है . इन सबके बावजूद हिंदी की देश विदेश में लोकप्रियता बढ़ी है . शनैःशनैः हिंदी समृद्ध होती जा रही है . इसका विस्तार भारत में ही नही बल्कि विदेशो में भी तेजी से बढ़ रहा है .हिंदी विश्व के 115 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है . इसके विविध पहलूओं पर गौर करने से ज्ञात होता है कि यह हमारे स्वाभिमान की भाषा होने के साथ ही हमारी गौरव भी है . हिंदी को सशक्त और व्यावहारिक बनाने के लिए हम सभी को एकजुट होकर प्रयास करने की आवश्यकता है . हिंदी के प्रति युवाओं में बढ़ रही उदासीनता भविष्य के लिए नुकसानदायक साबित होगा . इस लिए इसे समावेशित शिक्षा का माध्यम बनाना होगा जिससे हिंदी सबकी प्रिय और उपयोगी भाषा बन सके . सुचना प्रोद्योगिकी में भी हिंदी का इस्तेमाल बढ़ रहा है . कुलमिलाकर हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है . बस जरूरत है सरकारी और गैरसरकारी दोनों के कामकाजो में हिंदी का खुलकर उपयोग होने की जिससे इसकी अनिवार्यता बढ़ सके ताकी लोग इसके प्रति आकर्षित हो सके ।
===============करूणानिधि ओझा