हिन्दी दिवस
हिन्दी दिवस -१४ सितंबर विशेष
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हिंदी जानती है उसे सतत् बहते रहना है।
बहते बहते ही उसे यहाँ अक्षुण्ण रहना है
मर जाते हैं लोग वो जो जड़ से टुटे हों
कर निज भाषा सम्मान जिंदा रहना है
….पाखी
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14सितंबर, हिन्दी दिवस के लिए उस के सम्मान के लिए समर्पित तारीख ।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा है कि निज भाषा उन्नति को मूल पर क्या सच में हम अपनी भाषा को वह गरिमा या स्थान दिला पाये हैं?मंथन का विषय है।
#इतिहास –अतीत में इस कारण की जड़ है जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा न बनाया गया बल्कि दोयम दर्जे की भाषा बन कर रह गयी और अंग्रेजी षडयंत्र ,साजिश के साथ सिरमौर बनी हुई है।
सन्1918में गाँधी जी ने इसे जनमानस की भाषा कहते हुयेराष्ट्रभाषा का दर्जा दिये जाने की माँग की थी।पर आजादी के बाद सत्तासीन लोगों और जाति,भाषागत राजनीति करने वालों ने इसे कभी राष्ट्र भाषा बनने नहीं दिया।काकाकालेलकर,मैथिलीशरण गुप्त,हजारी प्रसाद द्विवेदी,सेठ गोविंददास,व्यौहार राजेंद्र सिंह आदि ने इसके लिए दक्षिण की कई बार यात्रायें की पर नतीजासिफ़र।
मानसिक गुलामी के कारण अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव व चलन और हिं्दी की अनदेखी रोकने के लिए आजादी केदो साल बाद 14सितंबर को संविधान सभा मेंएकमत से हिन्दी कोराजभाषा घोषित किया गया ।इसके बाद हर साल ,आज तक मनाते आ रहे हैं।
जनवरी 19650को भारतीय संविधान लागू होने के साथ राजभाषा नीति भी लागू हुई।अनुच्छेद 343(1)के अनुसार मारत की राजभाषा हिन्दी व लिपि देवनागरी मानी गयी।अनुच्छेद 343(2) के अंतर्गत यह व्यवस्था थी कि संविधानकेलागू होने के समय से 15वर्ष की अवधि तक संघ के सभी कार्यों के लिए पूर्व कीभाँति अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होता रहेगा।इसकाउद्देश था कि हिन्दी से दूर हो चुके लोग वापिस हिन्दी समझें व सीखें तथा अंग्रेजी को छोड़ने का पर्याप्त समय मिले।तथा हिन्दी को प्रशासनिक कार्यों के लिए सभी प्रकार से सक्षम किया जा सके।वर्ष 1965तक 15वर्ष पूरे होने के पश्चात् भी अंग्रेजी नहीं हटी ।संसदमें अंग्रेजी प्रयोग जारी रखने की व्यवस्था के साथ हिन्दी के समानांतर अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया।1967में संसद में भाषा संशोधन विधेयक लाया गया,क्योंकि अंग्रेजी कोभी सरकारी कार्यों में सहराजभाषा के रुप में उपयोग करने का प्रस्ताव पारित होचुकाथा,जिसके बाद हीअंग्रेजी अनिवार्य हुई।इस प्रस्तावमें हिन्दी के लिए कोई बात नहीं हुई।
सन् 1990में राष्ट्रभाषा का सवाल में शैलेश मटियानी ने सवाल किया था कि ,”14सितंबर को हीहिन्दी दिवस क्यों?राजभाषा या राष्ट्रभाषा दिवस क्योंनहीं।”जवाबों से असंंतुष्ट मटियानी जी ने प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुये इस दिन को हिन्दी दिवस के रुप में मनाने को #शर्मनाक पाखंड* करार दिया था।
यह तो कुछ तथ्य हैं हिंदी को दोयम दर्जे पर धकेले जाने के।तत्कालीन शासक ने स्वस्वार्थ के लिए न केवल भाषा कोपददलित किया वरन् देश की गरिमा को भी खंडित किया। विदेशियों के हाथ की कठपुतली बने हुये स्वार्थ में इतने अंधे हुये कि हमारा संविधान भी सात देशों के संविधान का मिला जुला रुप है।चाटुकारिता ने आजादी के लक्ष्य ,परेशानियों ,कठिनाइयों व शहीदों के जज्बे को दरकिनार करते हुये भारत पर सत्तासीन होने के लिए हर षडयंत्र ,साजिश ,साम,दाम,दंड,भेद को अपनाया।बातों से जनता को भ्रमित किया। इतिहास कोमिटाया गया। आजादी के बाद आजाद होने का उल्लास खतम हो गया। अंग्रेजी अनिवार्यता नौकरी व जीवन को ऊँचाई दिलाने के लिए जैसी भावनाओं के आरोपण ने।जन मानस सहज ही उस प्रवाह में बहता चला गया।कारण सिर्फ यही था कि कि वर्षों की गुलामी ने तन मन ही नहींतोड़ा था अपितु मानसिक पंगू भी बना दिया था। स्वतंत्र होते ही वह जहाँ जैसे समझ आई डूबता चला गया। कुछ लोग प्रलोभन में आकर विदेशी मूल्यों को अपना लिये और अंग्रेजी बोलने मेंगर्व महसूस करने लगे।
उनकी ऊपरी चमक-दमक व दिखाबे ने जनमानस को प्रभावित किया और हीनता के शिकार हो अंग्रेजी से जुड़ने लगे पर निज माटी की खुशबू भी छोड़ नहीं सके।
वो देखनेलगे विदेशों की ऊँचाइयाँ ,उनकी व्यवसासिक सफलताएँ ,उनका ठंडे मानसून का पहनावा और संभ्रांत परिवारों की ठसक।पर जो सच मेंदेखना चाहिये था उसे ही भूल गये।कि विदेशों ने अपनी भाषा अपनी संस्कृति से कोई समझौता नहीं किया। आज तलक उनके सरकारी काम हों या मल्टी प्रोडक्ट कंपनिया ,स्वदेशी भाषा में ही काम करती है। न्याय प्रणालिका भी तत्कालीन देश की भाषा को ही गौरवांवित करती है।पर भारत जो विभिन्न संस्कृतियों का ,वेश भूषा,खानपान का संगम है।विविधता में एकता के रंग में रंगा देश आज अपनी पहिचान ,भाषागत् पहिचान के अस्तित्व के लिए लड़ रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ऐतिहासिक दस्तावेज गुम होना ,शहीदों को क्रांतिकारी व देश द्रोही बताना , पीठ पर घाततथा पुनः लिखे जाने वाले इतिहास जैसे कार्यों ने आज पुनः विवश कर दिया है कि हम पुर्नविचार करें कि जिस वैचारिक संकट से जूझ रहे हैं उसका मुख्य कारण क्या है?क्या अपनी भाषा को हाशिए पर रख हम विकास कर सकते हैं?
जिन घरों में ठेठ बोली बोली जाती है वो बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में कितने सहज हो सकते हैं?भले ही माता पिता गर्व महसूस करेंभारी फीस ,किताबों तथा अन्य सुविधाओं का जुगाड करते हुये ।लेकिन घर के बारह घंटे ,स्कूल के नौ घंटों को कम नहीं कर सकते ।विपरीत माहौल में बच्चे की मानसिक स्थिति का आंकलन सहज किया जा सकता है।
चंद पंक्तियाँ…
*एक दिन या एक सप्ताह ,कर हिंदी के नाम हम गर्व से फूल जाते हैं,कविता,निबंध ,गीत या भाषण में गरिमा पिरो आते हैं।सरकारी दफ्त़र या विदेशी कंपनियों में,हम हिंदी बोलना भूल जाते हैं।
चीन जापान अमेरिका हो या तुर्की , राजस्थान,
निज भाषा के गौरव से बनाया स्वयं को महान।*
दिया प्रश्रय अंग्रेजी को,झूठे रुतबे का ढोंग
अब हमें हिन्दी के भाल पर तिलक लगाना है।
बोलें हिन्दी,गायें हिन्दी,लिखें पढ़ें हम हिन्दी
हर घर नगर नगर,डगर डगर यही अलख जगाना है
हर शब्द ,हर भाव के लिए हैं भरपूर शब्दकोष यहाँ,
सीमित शब्दों-अर्थों वाली भाषा क्यों अपनाना है।
चाचा,मामा,ताऊ,फूफा वहाँ सब ही तो अंकल हैं,
माँ ममी हुई पिता डेड बहन तो सिस्टर है ।
विस्तृत फलक है भाषा का अपना है समुचित विस्तार यहाँ,
छोटे से रुम को क्यों हमें घर बनाना है।
—पाखी
कुछ सवाल कि:—
क्या शिक्षा की गुणवत्ता अनुवादित होती है ?
हर देश की माँ क्या प्रसव पीड़ा सहती है?
महफिलों में बाते बड़ी बड़ी पर खोखले आदर्श ,
गुस्से में बिफरें जब तब औकात क्यों दिखती है?
निवेदन है कि हिन्दी को परित्यक्ता कब तक रखोगे?अब तो उसे ससम्मान संवैधानिक रुप से सही सिंहासन पर बैठाओ।सितंबर आते ही जैसे तैयारी शुरू श्राद्ध कर्म की।तमाम गोष्ठियाँ,हिन्दी गुणगान और फिर अर्पण ,तर्पण के बाद सब खतम।जैसे एक दिन पूर्वजों के नाम श्रद्धा भक्ति दिखाई फूल हार माला भोग सब ।फिर तस्वीर अलमारी में बंद ।
मेरा बस एक और सवाल सभी से
व्याप्त है अंग्रेजी भय क्यूँ ,फिजां में जीविका के लिए,
क्या विश्वगुरू, विदेशी भाषा से भारत कहलाया है?,
मनोरमा जैन पाखी
स्वप्रेरित विचार