हिन्दी गीति काव्य में तेवरी की सार्थकता। +सुरेश त्रस्त
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हिन्दी गीति काव्य की नूतन विधा तेवरी का नामकरण आठवें दशक के अन्त और नवें दशक के प्रारम्भ देवराज [द्वै] द्वारा किया गया। एक विशेष तकनीकी एवं अत्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त रचनाधर्मिता, जिसमें व्यक्तिगत अनुभवों के स्थान पर सामाजिक सरोकारों के अनुभवों को स्थापित करने की पहल की गयी |
तेवरी के सूत्रपात एवं नामकरण को लेकर हिन्दी काव्य में जिस प्रकार की उठापटक शुरू हुई, वाद-विवाद उत्पन्न हुए, इस संदर्भ में तेवरी के नियामकों, स्थापकों एवं रचनाकर्मियों ने तेवरी की वकालत करते हुए, उसे सार्थक सारगर्भित और प्रासंगिक सिद्ध करने के लिए अथक प्रयास किये। जबकि तेवरी को बलात् अवतरण मानते हुए एवं उसके शिल्प-पक्ष को खारिज करते हुए सुश्री जया नर्गिंस ने कहा-‘‘ तेवरी लेखकों का यह दावा ही झूठा है कि तेवरी ग़ज़ल से बिल्कुल अलग एक स्वतंत्र विधा है और यह ग़ज़ल की तरह किन्हीं नियमों को नहीं मानती। अगर ऐसा है तो तेवरी में ग़ज़ल की तरह दो-दो पंक्तियों के शे’र क्यों होते हैं।’’
श्री नीतीश्वर शर्मा नीरज ने अपना तर्क दिया ‘‘ आम को इमली कह देने से जिस तरह उसके गुण और स्वाद में कोई अन्तर नहीं आ जाता…. जिस तरह एक कप या गिलास में आप दूध रख सकते हैं और दया, शराब, पानी, जहर भी लेकिन रखे गये द्रव के आधार पर गिलास या कप का नाम बदलने से उसमें क्या तब्दीली हो जायेगी। अतः मैं तेवरी को काव्य की कोई नयी विधा नहीं मानता बल्कि ग़ज़ल या दोहे का रूप लिए [ आकार में लिखी गयी ] कविताओं का नाम है तेवरी |
इतना ही नहीं श्री ज्ञान प्रकाश विवेक ने तेवरी के प्रति अपनी झल्लाहट और बौखलाहट व्यक्त करते हुए कहा-‘‘खूब लिखिये तेवरी और खूब छापिये उन्हें तेवरीपक्ष में, लेकिन एक सवाल जरूर करूंगा आपसे-तेवरी ग़ज़ल के शिल्प में क्यों लिख रहे हैं आप? भगवान करे या रमेशराज करे कि तेवरी भी साहित्यिक विधा में गिन ली जाये और देवराजों, सुरेश त्रस्तों, अरुण लहरियों का कल्याण हो जाये। कोई पूछे कि साहब तेवरी कहीं मैनूफैकचर होती है तो झट मुंह से निकलेगा-अलीगढ़। बुरा न मानें तो एक बात कह दूं कि अब तक की तमाम तेवरियां ग़ज़ल का बिगड़ा हुआ रूप है |”
तेवरी की टैक्निक को ग़ज़ल की नकल मानते हुये युवा कवि सिद्धेश्वर ने सुपरब्लेज [ मासिक ] में ‘महज बहस के लिए’ स्तम्भ के अन्तर्गत एक लम्बी बहस कई अंकों में जारी की | अप्रैल 85 अंक में श्री सतीश पुष्करणा, बी. एल. प्रवीण, तारिक अस्लम तस्नीम का मानना था-‘‘ बात समझने की है कि आदि मानव भी आदमी था आज भी आदमी कहलाता है और सदैव आदमी ही कहलाता रहेगा |
श्री रमेशराज द्वारा सुपरब्लेज मार्च 85 अंक में प्रस्तुत आलेख ‘ग़ज़ल, ग़ज़ल हैः तेवरी, तेवरी है’ पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यहां भी खालिस्तान की मांग की तरह प्रथकतावादी हाथ खड़ा किया जा रहा है….. जैसे कि कहानी, लघुकथा, परीकथा, दंतकथा, संदर्भ कथा आदि के वर्गीकरण के बावजूद ये सब कहानी हैं , रचना के कथ्य, विस्तार एवं सम्प्रेषणीयता आदि को मद्देनजर रखते हुए तेवरी भी ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप ही है।“
तेवरी के शिल्प-पक्ष को लेकर ग़ज़ल के उक्त पक्षधरों ने तेवरी की सार्थकता को नकारते हुए जिन तथ्यों की ओर संकेत किया, उन तथ्यों के आधार पर निम्न बातें उभर कर सामने आयीं-;
1. तेवरी, ग़ज़ल से अलग कोई स्वतंत्र विधा नहीं है।
2. तेवरी की अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था एवं समस्त पंक्तियों का क्रम ग़ज़ल के रदीफ-काफिये तथा उसके शेरों की व्यवस्था हू-ब-हू नकल है।
3. चूंकि तेवरीकारों को ग़ज़ल की टैक्निक की भी पूरी जानकारी नहीं है, अतः तेवरी में ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष का पूर्ण निर्वाह न हो सकने के कारण, तेवरी ग़ज़ल का ही एक अपभ्रंश या बिगड़ा हुआ रूप बन कर रह गई है।
4. तेवरी बिना सोचे समझे, अतार्किक ढंग से प्रस्तुत की गई एक ऐसी पहल है जो खालिस्तान की मांग की तरह पृथकवादी-विघटनकारी एवं स्वयं को [ तेवरीकारों को ] स्थापित करने का एक प्रीपेगण्डा, एक स्टन्ट है।
तेवरी और ग़ज़ल के बीच किये गये उक्त प्रकार के घालमेल, भ्रामक स्थितियों एवं उत्पन्न शंकाओं के समाधान हेतु अलीगढ़ से श्री रमेशराज ने तेवरी विधा की एक पत्रिका ‘तेवरीपक्ष’ का प्रकाशन वर्ष 1983 में प्रारम्भ किया, जो नियमित रूप से अब भी प्रकाशित हो रही है। तथा तेवरी विधा के पांच संकलन-‘अभी जुबां कटी नहीं’, ‘कबीर जिन्दा है’ ‘इतिहास घायल है’, ‘एक प्रहारः लगातार’, देश खण्डित हो न जाये’ अपने प्रकाशन ‘सार्थन-सृजन’ से निकाले।
इसके अतिरिक्त देवराज [ द्वै ] द्वारा ‘तेवरी’ एवं तेवरी चर्चा शीर्षक से तथा पवन कुमार पवन द्वारा ‘मचान’ शीर्षक से महत्वपूर्ण संकलन प्रकाशित हुए। कुन्दनशील, जर्जर कश्ती एवं प्रतीक, शिवनेत्र मासिक पत्रिकाओं ने भी इस दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
तेवरी की विधागत वकालत करते हुए श्री रमेशराज ने कहा कि-‘‘ ग़ज़ल का अर्थ है प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत | ग़ज़ल अपने प्रारम्भ से ही सामन्तों, अय्याशों, नवाबों के मनोरंजन का साधन रही है | अतः ग़ज़ल समकालीन संदर्भों में सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है।…. ग़ज़ल सदियों से खास आदमी के चरित्र से जुड़ी रहने के कारण, तेवरी की मान्यताओं, जीवन मूल्यों के एकदम विपरीत ठहरती है। ग़ज़ल के साथ सामाजिक दायित्वों का ढिंढोरा पीटने वाले रचनाकार सुषमा, सारिका, धर्मयुग कदाम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, बीसवीं सदी आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लैला मजनूं के किस्सों की गौरवगाथाओं का बखान करने वाली ग़ज़लों में कौन-सा सामाजिक दायित्व टटोलेंगे।…. इमली को आम बताकर इमली का स्वाद आम की तरह चखने बाले रचनाकारों को पता नहीं यह बात कब समझ में आयेगी कि मदिरा से भरे हुए प्याले को जाम कहा जाता है, जहर से भरे हुए प्याले को नहीं।… हमें स्वतंत्रता आन्दोलन के अगुआ भगतसिंह-चन्द्रशेखर आजाद और गांधी-गोखले, कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली रानी लक्ष्मी बाई, एक शासक के रूप में सम्राट अशोक और हिटलर में कुछ तो अंतर करना ही पड़ेगा।“
तेवरी और ग़ज़ल के बीच इसी तरह अन्तर को स्पष्ट करते हुए श्री अरुण लहरी लिखते हैं-‘‘तेवरी शांत जल के ऊपर विहार करते हुए हंसों के सौंन्दर्य को नहीं निहारती बल्कि बहेलिये के तीर से घायल हंस की आंखों में छुपी हुई वेदना के टटोलती है।
तेवरी नारी को साकी के रूप में प्रस्तुत नहीं करती बल्कि स्वार्थी समाज द्वारा उत्पीडि़त शोषित नारी की पीड़ा को अभिव्यक्ति का विषय बनाती है |
तेवरी गुलाबी होठों का रसपान नहीं बल्कि दवा के अभाव में दम तो तोड़ते हुए खुश्क होठों का भान है।’’
तेवरी और ग़ज़ल सम्बन्धी उपरोक्त विवेचन तेवरी को ग़ज़ल से जिन अर्थों में पृथक करता है, वह अर्थ निश्चित रूप से तेवरी और ग़ज़ल की वे चारित्रिक विशेषताएँ हैं, जिनका सीधा-सीधा सम्बन्ध किसी विधा के कन्टैन्ट अर्थात् उसके कथ्य से होता है। इस संदर्भ में तेवरी और ग़ज़ल के बीच का यह अन्तर बेहद सारगर्भित और सार्थक ठहरता है।
अस्तु अधिकांश गजलगोओं का यह कहना कि समय परिवर्तन के साथ ग़ज़ल के मिजाज में परिवर्तन आया है, यह सोचने को मजबूर करता है कि ग़ज़ल के मिजाज में क्या और कैसा परिवर्तन आया है? श्री विजयपाल सिंह द्वारा सही समय पर उठाया गया यह एक ऐसा सवाल है जिसका ग़ज़लगोओं द्वारा उत्तर दिया जाना अभी शेष है।
श्री शिवओम अम्बर के अनुसार-“ग़ज़ल किसी शोख नाजनीन की हथेली पर अंकित मेंहदी की दन्तकथा नहीं बल्कि आक्रोश की मुठ्ठी में थमी प्रलयकारी मशाल है।“
तब क्या विशेष कथ्य या चरित्र के आधार पर अपनायी गई एक विधा एक ही समयविशेष, परिस्थिति विशेष, घटनाक्रमविशेष में अपने दो तरह के चरित्रों में जी सकती है? दुर्भाग्यवश ग़ज़ल के पक्षधरों के पास इसका भीं उत्तर नहीं। ऐसे में श्री विजयपाल सिह का यह तर्क बड़ा ही महत्वपूर्ण लगता है-‘‘ किसी रचना के कथ्य या शिल्प में जब क्रांतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तो वह अपनी मौलिक पहचान खोती है अथवा नहीं? यदि वह अपनी मौलिक पहचान खोकर, अपने पुराने रूप को त्याग कर एकदम नये रूप में प्रस्तुत होती है तो उसे पुराने नाम से ही पुकारना नितान्त नासमझी है। और यह नासमझी ठीक इस तरह है जैसे कोई वैश्या, वैश्यावृत्ति त्यागकर अपना घर बसा ले और एक आदर्श पत्नी की भूमिका निभाये लेकिन हम उसे फिर भी वैश्या ही सम्बोधित करते हैं।’’
तेवरी को स्पष्ट करते हुए अरुण लहरी का कहना है कि- ” दरअसल किसी रचना का कथ्य या चरित्र उस समय की परिस्थितियों और आस-पास के परिवेश के प्रभाव से उत्पन्न विचारों और भावों का मिश्रण होता है। सामंती युग की कविता भी उससे मुक्त नहीं रही, जब अय्याशी खून बनकर रगों में दौड़ रही थी, उस वक्त कविता सामाजिक चेतना की मशाल नहीं, एक अय्याश की बदनसीब लौड़ी थी। अन्त्यानुप्रास से बंधी ग़ज़ल नामक कविता, मरमरी जिस्म, मख्मूर आंखों, खमदार जुल्फों एवं मस्त अंगड़ाईयों से भरा एक ऐसा पिटारा थी, जिसे यथानाम तथागुण के कारण ग़ज़ल संज्ञा से विभूषित किया गया। ग़ज़ल का चरित्र उस वक्त के प्रभाव से उत्पन्न विचार थे। फिर हुस्न की शिकायत महबूबा से न होकर व्यवस्था से होने लगी। आंखें खुमारी से नहीं, आक्रोश से जलने लगीं। लेकिन हमारा दुर्भाग्य यह रहा कि हमने इस ओजपूर्ण अभिव्यक्ति को प्रेमिका को बांहों में भरने के जोश के रूप में ही आंका। ग़ज़ल शब्द संस्कार के रूप में ज्यों की त्यों हमारी मानसिकता से चिपका रहा। कुछ सजग साहित्यकारों ने इस अन्तर को महसूस करते हुए, साहित्य की इस ओजपूर्ण अभिव्यक्ति को तेवरी नाम दिया”।
तेवरी की यह स्थापना निर्विवाद और प्रासंगिक रहनी चाहिए थी। लेकिन ग़ज़ल शब्द के संस्कारों से चिपके साहित्यकारों ने तेवरी को जिस प्रकार संदिग्ध अवस्था में लाकर खड़ा करने की कोशिश की, उसमें एक संदिग्ध स्थिति तेवरी के शिल्पपक्ष को लेकर भी थी। जिसको साफ किये बगैर तेवरी की स्थापना बेमानी-सी लगने लगी। परिणाम स्वरूप श्री रमेशराज ने तेवरी के शिल्प पर भी तेवरीपक्ष के कई अंकों में चर्चा की।
ग़ज़ल के शिल्प से तेवरी के शिल्प की अलग करते हुए श्री रमेशराज ने ‘तेवरीः शिल्पगत विशेषताएं’ शीर्षक से एक लेख लिखा और कहा-शिल्प का अर्थ होता है किसी भी रचना को प्रस्तुत करने का माध्यम | रचना को प्रस्तुत करने की यह प्रक्रिया उस रचना की भाषा छंद, अलंकार, रस, शब्द प्रयोग, प्रतीक मिथक उपमान आदि विषयवस्तुओं पर पूर्णरूपेण निर्भर रहती है।… तेवरी की रचना हिन्दी काव्य छन्दों के अनुसार की जाती है। जिसमें प्रयुक्त भाषा अलंकार प्रतीक उपमान मुहावरे आदि ग़ज़ल की भाषा या अलंकारिक व्यवस्था से कोई साम्य नहीं रखते। एक तरफ जहां ग़ज़ल में साकी, शराब मयखाना, वस्ल, यास, तमन्ना, तन्हाई, फिराक महबूबा, नामावर, जाहिर, मख्मूर आंखें, सुरुर, कमसिनी आदि शब्द अपने अभिधात्मक लक्षणात्मक या व्यंजनात्मक रूप में केवल रुमानी या रोमांसवादी दृष्टिकोण के इर्द-गिर्द भटकाते हैं। वहीं तेवरी आम आदमी की भाषा के साथ एकाकार होकर सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। तेवरी में प्रयुक्त बिच्छू, सांप, शैतान, मछली, काठ के घोड़े, टोपी, बहेलिया, भेडि़या, चाकू, वर्दी, कुर्सी, गुलेल, बाज, चीता आदि शब्द अपने प्रतीकात्मक रूप में आदमी के शोषक और शोषित व्यक्तित्व को उजागर करते हैं ।“
श्री रमेशराज की तेवरी के शिल्प-पक्ष के संदर्भ में की गयी उक्त व्याख्या काफी सारगर्भित महसूस होती है | सच बात तो यह है कि जब किसी रचना का कथ्य बदलता है तो उस रचना के शिल्प में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसकी रस व्यवस्था बदल जाती। भाषा में एकदम नयी प्रतीकात्मक, अलंकारात्मक व्यवस्था खड़ी हो जाती है। इस नाते तेवरी का शिल्प, ग़ज़ल के शिल्प से एकदम विपरीत ही नहीं, बिलकुल अलग-थलग है। जहां तक छन्द का संबन्ध है तो तेवरी की रचना वर्णिक एवं मात्रिक छन्दों के आधार पर की जाती हैं जबकि ग़ज़ल की रचना बहरों पर आधारित होती है।
रही बात तेवरी में रदीफ- काफिये जैसी तुकांत व्यवस्था के सम्बन्ध में तो इस विषय में स्थिति स्पष्ट करते हुए श्री विजय पाल सिंह अपने शोध प्रबन्ध ‘‘ हिन्दी ग़ज़ल : परम्परा एवं विकास’’ में लिखते हें कि हिन्दी में ग़ज़ल के शेरों एवं रदीफ-काफियों जैसी व्यवस्था ग़ज़ल से ली गई प्रतीत नहीं होती। इस तरह की व्यवस्था तो जगनिक, चन्द्रवरदाई, विद्यापति जैसे आदिकाल के हिन्दी कवियों में भी उपलब्ध होती है। हिन्दी काव्य का रीतिकाल इस तरह की तुकान्त एवं शेरों जैसी व्यवस्था से भरा पड़ा है। अतः तेवरी में अपनायी गई उक्त प्रकार की व्यवस्था ग़ज़ल की नकल महसूस नहीं होती।
कुल मिलाकर तेवरी और ग़ज़ल सम्बन्धी उक्त विवेचन के आधार पर यह बात बल-पूर्वक कही जा सकती है कि हिन्दी काव्य में तेवरी की सार्थकता निर्विवाद है। तेवरी का कथ्य एवं शिल्प उसकी मौलिक उपज है, जिसमें हिन्दीपन की सौंधी-सौंधी गन्ध का अनुभव होता है।