हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं की स्वतंत्रता का प्रश्न तथा अनुच्छेद तीस की व्याख्या*
* हिंदुओं की शिक्षा संस्थाएँ तथा अनुच्छेद तीस की व्याख्या*
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■ सरकारी-तंत्र ने हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं के संचालन पर तो प्रतिबंध लगाए हैं लेकिन गैर-हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं पर हस्तक्षेप उसके लिए कठिन रहा है । ऐसा क्यों ? इसके पीछे संविधान द्वारा अनुच्छेद 30 के माध्यम से अल्पसंख्यकों को दिया गया वह संरक्षण है ,जिसके द्वारा उन्हें अपने द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थानों के संचालन की गारंटी प्रदान की गई है ।
अनुच्छेद 30 में यह गारंटी केवल अल्पसंख्यकों को मिली है । बहुसंख्यकों को को यह गारंटी नहीं दी गई है। इसका कारण तलाशने के लिए हमें उस ऐतिहासिक परिदृश्य में जाना पड़ेगा जिसमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर देश का विभाजन हुआ था । विभाजन के पश्चात संविधान की रचना हुई और उस समय संविधान निर्माताओं ने यही सोचा होगा कि यदि संरक्षण और गारंटी की आवश्यकता है तो वह केवल अल्पसंख्यकों को ही है ताकि वह जो भारत में हैं उनका शोषण और उत्पीड़न सरकारी-तंत्र न कर सके । उनकी शिक्षा संस्थाओं को हड़पने न पाए तथा उन्हें अपनी शिक्षा संस्थाओं के संचालन के अधिकार से कोई भी सरकारी-तंत्र वंचित न कर पाए।
हिंदुओं के संबंध में इस प्रकार की गारंटी दिए जाने की कोई आवश्यकता 1949 के परिदृश्य में किसी को भी महसूस नहीं होती । आखिर हिंदू बहुसंख्यक थे। उन्हीं के वोटों से सरकार बननी थी । अंततोगत्वा देश में उनकी शक्ति इतनी होनी ही थी कि कोई सरकारी-तंत्र उनकी शिक्षा संस्थाओं पर टेढ़ी नजर डालने की जुर्रत न कर पाता । इसलिए अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को तो शिक्षा संस्थाओं के संचालन की गारंटी देता है लेकिन बहुसंख्यकों के संदर्भ में यह मौन है ।
संविधान का यह मौन बहुत महत्वपूर्ण है । मौन का यह अर्थ नहीं है कि संविधान हिंदुओं को उनकी शिक्षा संस्थाओं के संचालन की गारंटी नहीं देता। मौन का अर्थ यह है कि संविधान मुखरित होकर उनके शिक्षा संस्थाओं के संचालन के अधिकार को लिपिबद्ध नहीं कर रहा है । अनुच्छेद 30 का इतना सा ही अर्थ है। इसका अभिप्राय यह है कि संविधान में हिंदुओं को अपनी शिक्षा संस्थाओं के संचालन की गारंटी स्वतः ही प्राप्त है । जब तक स्पष्ट प्रावधान के द्वारा संविधान उनसे उनकी यह स्वतंत्रता नहीं छीनता ,तब तक उन्हें अल्पसंख्यकों के समान ही अपनी शिक्षा संस्थाओं के संचालन का अधिकार मिलेगा । आखिर इस व्याख्या में गलत क्या है ? हर चीज न तो लिखी जाती है और न उसके लिखने की आवश्यकता होती है ।
इसलिए उचित तो यही होता कि अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षा संस्थाओं के संचालन की जो गारंटी संविधान के अनुच्छेद 30 में दी गई है ,उसका लाभ स्वतः बहुसंख्यक समाज को मिलता और इस तरह हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं पर सरकारी तंत्र का हस्तक्षेप बेलगाम नहीं हो पाता ।
लेकिन वाह री वोटों की राजनीति ! देश आजाद हुआ । लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होने लगे। मतदाताओं के ध्रुवीकरण और विभाजन का ऐसा खेल चला कि हिंदू निर्बल हो गए तथा अपनी शिक्षा संस्थाओं को बचा पाने में सफल नहीं हो सके । नौकरशाही तो इस इंतजार में रहती ही है कि कब वह अपने अधिकार-क्षेत्र का विस्तार करे और सब कुछ अपने चंगुल में ले ले । संविधान के लागू होने के एक-दो दशक के बाद ही सरकारी-तंत्र हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं के प्रति एक प्रकार से हमलावर हो गया और उसने हिंदुओं और गैर हिंदुओं के बीच भेदभाव करते हुए केवल हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं को हड़पने की नीति शुरू कर दी । हमारा विरोध इसी बिंदु पर है ।
अब यह हिंदू-विरोधी दृष्टिकोण जो सरकारी तंत्र ने अपना रखा है उस से कैसे निपटा जाए ? संविधान की सही व्याख्या तथा उसके मूल मंतव्य को सरकारी तंत्र तक पहुंचाना एक टेढ़ी खीर है । संविधान में संशोधन करके उसमें अल्पसंख्यकों के साथ-साथ बहुसंख्यकों को भी शिक्षा संस्थाओं के संचालन की स्वतंत्रता दी तो जा सकती है लेकिन यह संशोधन बिना प्रबल हिंदू जनमत के संभव नहीं है । वह प्रबल जनमत कैसे बने ?
शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है। अतः राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर सरकारी-तंत्र को बेलगाम शक्तियां हिंदुओं की शिक्षा संस्थाओं को उनसे छीनने के कार्य के लिए प्रदान कर रखी हैं । नौकरशाह निर्ममता पूर्वक प्रदत्त अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं । हिंदुओं के लिए अपनी ही शिक्षा संस्थाएं स्वतंत्रता पूर्वक संचालित करना दूभर हो गया है । राज्य सरकारें अगर चाहें तो इस प्रवृत्ति को न केवल रोक सकती हैं बल्कि विकृत धाराओं को फिर से सही दिशा में मोड़ा जा सकता है अर्थात हिंदुओं द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं को वही अधिकार दिए जा सकते हैं जो किसी भी राज्य में गैर-हिंदुओं द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं को संचालन के संबंध में प्राप्त हैं।
धर्म के आधार पर भेदभाव किसी भी प्रकार से मान्य नहीं किया जा सकता । संविधान निर्माताओं की भी यही मंशा थी। इसीलिए तो अनुच्छेद 30 की रचना हुई थी। अब समय आ गया है जब अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यककों को समानता के साथ अपनी शिक्षा संस्थाओं को चलाने का अधिकार मिले । दोनों वर्गों के लिए एक जैसा कानून बने तथा सरकारी तंत्र के अनुचित हस्तक्षेप को नियंत्रित किया जाए।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर( उत्तर प्रदेश )
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