हिंदी साहित्य की नई विधा : सजल
सजल
समान्त—– अलती
पदान्त—– ये जिंदगी
मात्रा भार —–25
पलों पर रेत की तरह फिसलती ये जिंदगी l
अपने आप से बच कर निकलती ये जिंदगी ll
कहीं पर रौशनी करे तो दम लगा कर करेl
कहीं अँधेरे खुद को निगलती ये जिंदगी।l
शिला-सी बन कर कभी खुद को आंकती रहतींl
किसी के नाम पर घुले पिघलती ये जिंदगीll
किसी के ख्वाब में शीशे में ढली रहती हैंl
कहीं पर गैरों से युँ ही बहलती ये जिंदगी।l
ये आंसुओ का सागर समेटे पलकों में l
हवा के बहते रुख को विदलती ये जिंदगीll
किलकती रहती हैं पत्थर पहाड़ के दिल में l
किसी के छूने भर से दहलती ये जिंदगी।l
किसी पर बरसे तो भादों की रात सी बरसे l
किसी के दिल में जमी को मचलती ये जिंदगी।l
कहीं लिफाफो में बंद हो कर जीती रहती हैl
कहीं आजादी से बस टहलती ये जिंदगीll
कहीं पर देखी है खुल कर लगाती कहकहेl
कहीं तन्हाई में युँ ही उछलती ये जिंदगी ll
कहीं यह उखड़ी साँसों को थामे रहती है l
कहीं पर मौत के हाथों मसलती ये जिंदगी।l
सुशीला जोशी, विद्योत्तमा
9719260777