हिंदी कविता चलो! एक बार फिर दिखाता हूँ समुन्दर में बूँद नहीं बूँद में समुन्दर बन कर
चलो बैठते हैं बैठ जाते हैं
बैठ ही जाते हैं
चलने को तो ज़माने में बहुत कुछ है
वक़्त भी है
हवा है।
नफरत है
तल्खियां हैं
गुस्ताखियां हैं
गुस्सा है
तुम में मुझ में बढ़ती दूरियां हैं
तन्हाइयां हैं
आक्रोश है
रुसवाईआं हैं
बढ़ती हुई दवाइयां हैं।
बैठे बैठे
बैठे ही रह गए
चलना भूल गए
कुछ बचे खुचे ख्वाब
पुरानी जीर्ण यादों के
घने जालों में
असहाय और लाचार से
झूल गए।
मगर ठहरना ज़रा
इन मायूस बुझी आँखों में
एक चमक दिखती है कहीं
इस जूझते दीये में
बुझती आग की आब से
रौशनी दिखती है कहीं
चलो! एक बार फिर
दिखाता हूँ
समुन्दर में बूँद नहीं
बूँद में समुन्दर बन कर
अब तुम ठहरो
मैं चलता हूँ।