“हिंदी एक राष्ट्रभाषा”
किसी भी देश की भाषा उस देश की पहचान होती है, और उस देश की ताकत भी, जो वहां के जनमानस को एक सूत्र में बांधे रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भाषा कोई भी हो उसके प्रति समुचित विकास की अवधारणा होनी चाहिए, लेकिन अपनी मातृभाषा जैसा कोई हितकारी भाषा नहीं। यह भी ज्ञात होना चाहिए। हमें हिंदू धर्म का युगों-युगों से चली आ रही परिपाटी को मानना ही पड़ेगा कि हम पहले कूल देवताओं के पूजन के पश्चात् बाह्य देवताओं का पूजन में विश्वास रखते हैं। आजादी बाद भी अंग्रेजी भाषा का जिस तरह उत्थान होता रहा और हिंदी को निम्नतम की श्रेणी में रखने वाले कुविचारी कभी भी हिंदी का भला नहीं कर सकते। हिंदुस्तान को अंग्रेजी भाषा विरासत में देकर चले गए। इसका यह मतलब नहीं कि आजादी भी हमें विरासत में मिली है। आजादी हमारे वीर सपूतों की सदियों के अथक संघर्षों का परिणाम है।
अंग्रेजी को हमनें प्रसाद समझकर ग्रहण तो कर लिया, किन्तु आज वही भाषा हमारे राष्ट्रभाषा हिंदी के उत्थान में सबसे बड़ी बाधक सिद्ध हुई है या ये कहें कि हिंदी का आज भी वही वजूद बचा है, जो आजादी पूर्व एक हिंदुस्तानी का उनके दृष्टिकोण में हुआ करता था। शासकीय किरदार निभा रही अंग्रेजी, हिंदी को पूरी तरह से कुचल कर कमजोर कर देने की धारणा लिए, नौकरशाही का दबाव बढ़ता जा रहा है। जैसे-जैसे देश तरक्की के रास्ते पर अग्रसारित हो रहा है, वैसे-वैसे ही हम अंग्रेजियत के गुलामी का मुखौटा पहने जा रहे है। अंग्रेज हिंदुस्तान में एक मात्र व्यापार के उद्देश्य से आयें और विस्तारवादी विचारधारा का ऐसा प्रबल दोगली नीति का प्रसार हुआ कि आज भी हम भारतीय उनके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। हम अपने ही नौकरों के गुलाम इस कदर होते गए कि अपने गौरवशाली इतिहास को ही भूल गए। ऐसा तब होता है, जब हमारे विवेक शिथिल, उद्देश्यहीन या चेतनाएं शून्य हो जाते है। हिंदी के स्वाभिमान के प्रति उदासीन रवैया को दफन कर, अगर हम खुद को सचेते होते, अपने संस्कृत, संस्कार व उद्देश्य का अवहेलना समझे होते, तो ऐसा नहीं होता कि हम एक शरणार्थी भाषा के आगे नतमस्तक हो जाते। ठीक उसी प्रकार जैसे, हमारे घर मे कोई मेहमान बनकर आए और धीरे-धीरे उसी की भाषा शैली का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ने लगे और हम उल्टा उसी की भाषा का समर्थन कर स्वीकार करने लगे, तो हम इसे गुलामी नहीं तो क्या कहें?
हम किसी भी भाषा के विरोधी नहीं है, लेकिन हम इतना भी नहीं कर सकते कि हमारे ऊपर कोई विदेशी हुक़ूमत चाहे किसी रूप में अपना अनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने का दुस्साहस करें और हम अपने स्वाभिमान की रक्षा भी न कर सके, यह भलीभांति जानते हुए कि हमनें आजादी कितने संघर्षों बाद हासिल की है, तो इसका मतलब यह है कि हमनें अपना इतिहास पढ़ा नहीं या हमने अपने इतिहास से कुछ सिखा नहीं या हमें अपने इतिहास का ज्ञान नहीं या फिर हमें अपने इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं, तो ऐसे लोगों को जानवरों के श्रेणी में रख देना ही उचित है। हम कमजोर हैं, हम अपनी और अपने भाषा की रक्षा करने में अक्षम है, तो फिर क्या करेंगे? इसी गुलाम मानसिकता की वजह से हमारा देश कभी गुलाम हुआ था और इन्हीं सोच की वजह से कभी हम हिंदुत्ववादी सोच को (बल नहीं दे सके) सामर्थ्य नहीं दे पाते है। भारत का प्रत्येक नागरिक चाहें वह किसी भी जाति, धर्म से संबंधित क्यों न हो? वह सिर्फ और सिर्फ हिंदू है। देश को हिंदू राष्ट्र घोषित होते हुए देखने की इच्छा प्रत्येक भारतीय का प्रबल है। मगर यह भी दूर की कौड़ी है। हमें बीना कुछ किए सब कुछ पाने की इच्छा ने अन्दर से इतना निर्बल कर दिया है कि हम दिन-प्रतिदिन आलसी, कर्महीन और निरर्थक होते जा रहे हैं। हमें निजी हितों को त्याग कर देशहित का दृष्टिकोण अपनाना होगा।
आज हर स्कूलों-कॉलेजों में किसी भी बच्चे को दाखिला दिलाने जाएं। तो प्रश्न उठता है कि अंग्रेजी का मध्यम है? हम अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बातों- बातों में ही करने लगे हैं। हमारे लिए अंग्रेजी आसान लगने लगी है। तो हम हिंदी और हिंदूत्व की रक्षा कैसे करेंगे? क्या यही रवैया रहेगा? तो भावी पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे पद चिन्हों का अनुसरण कर हिंदी से मोह खत्म नहीं कर लेंगे। आखिर हमें अंग्रेजी से मोह क्यों इतना है? हमें अपने ही घर में अपने पैतृक संस्कृत का नाश करतें हुए तनिक शर्म नहीं आती? हम खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं! तो सबसे पहले हमें राष्ट्रवाद के तथ्य को समझना पड़ेगा। हमें आजादी का मतलब समझना होगा। हमारे लिए आजादी का मतलब आजादी ही होना चाहिए। इसके बदले में न कोई शर्त न कोई समझौता। हिंदू और हिंदूत्व के पक्ष में बीच-बीच में आवाज भी उठती रही है, लेकिन कौन सुनेगा भारतीय सरकार! और बड़ी शर्म की बात तो यह है कि आज तक किसी ने गम्भीरता से स्वीकारा तक नहीं। क्या आज तक इस पर कोई कठोर कानून बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ी? लेखक, कवि, साहित्यकार व लोक गीतकार क्या हमेशा विपक्ष की भूमिका ही निभाते रहेंगे? क्या इनका साहित्य के माध्यम से जो मांग रखते है जायज नहीं है? या फिर सरकार के पास ऐसी कोई सार्थक नीतिगत प्रारुप नहीं है। हिन्दू राष्ट्र की मांग दसकों से चला आ रहा एक मुख्य मुद्दा है। जिसे सुलझाना भारतीय सरकार की प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए।
हम भी बात कर सकते हैं, 14 सितंबर को हिंदी दिवस मना सकते हैं। भारत के आजादी के 75 वें साल को “अमृत महोत्सव” के रूप में मना सकते हैं। इसके लिए लाखों करोड़ों रुपए खर्च कर सकते हैं। धारा (अनुक्षेंद) 370 हटा कर जम्मू कश्मीर को भारत का विषेश राज्य का दर्जा दे सकते हैं। दशकों से चला आ रहा राम मंदिर विवादित मुद्दा सुलझा सकते हैं तो संविधान में संशोधन कर एक सम्मान हिंदी और हिंदुस्तान को नहीं दिला सकते। हम कब तक हिंदू राष्ट्र के मांग को अस्वीकार करते रहेंगे? हम क्यों नहीं विकसित राष्ट्र की ओर देखते हैं? हमें यह लिखते हुए राष्ट्रीय कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र की वह पंक्ति याद आती है, जिसमें लिखा है कि——————–
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
संभव नहीं है कब तक हिंदी अपने ही घर में अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती रहेगी। यह सत्य है कि हिंदी हमारी माता और हिंदी का उर्दू से गहरा नाता है, परन्तु अंग्रेजी को केवल शरणार्थी भाषा का ही दर्जा दिया जा सकता हैं किन्तु इसे घर से निकला नहीं जा सकता, क्योंकि भाषा कोई भी हो अनुपयोगी नहीं होती। इसलिए इसके महत्व को भी अस्वीकार नहीं कर सकते बल्कि हमें ऐसे प्रशासनिक योजनाएं रेखांकित करने होंगे कि हर निजी और सरकारी कार्यालयों में जनपद से लेकर केंद्र स्तर तक हिंदी भाषा को प्रतिबद्धता और प्रमुखता के साथ लागू किया जाए। इसके बाद अंग्रेजी भाषा के विकल्प का चुनाव होना चाहिए। तभी हम अपनी हिंदी, हिंदुस्तान, संस्कृत और सभ्यता को बचा पाएंगे और दुनिया के शीर्ष राष्ट्रों में खुद को गर्वानुभूति महसूस कर पाएंगे। 14 सितंबर को हम हिंदी दिवस मनाते हैं, लेकिन इतना ही काफी नहीं है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर 1949 ई. को संविधान सभा ने एकमत से यह प्रस्ताव पारित कर निर्णय लिया कि हिंदी की खड़ी बोली ही भारत की राष्ट्रभाषा होगी। बाद में इसे 1950 ई. को देश के संविधान सभा द्वारा इसे स्वीकार कर लिया गया। यह क्षण हमारे लिए गर्व का विषय तो था ही पर हिंदी को वो सम्मान नहीं मिल सका जो मिलना चाहिए था। हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए सन् 1953 में संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा लेकिन आज भी हम भारतीयों का सपना वहीं आकर खत्म हो जाता है, जहां से हमने देखना शुरू किया था। हिंदू राष्ट्र का सपना साकार कब होगा? भगवान जाने! लेकिन यह हमारे कार्यक्षमता, कार्य प्रणाली तथा उदासीनता को दर्शाने के लिए काफी नहीं है! हिन्दुस्तान जिस दिन हिंदू राष्ट्र घोषित हो जाएगा, उसी दिन हम सबको सच्चा सम्मान और सही सकारात्मक पहचान मिलेगा। हिंदु राष्ट्र की मांग जायज है और हर हिन्दुस्तानी को करनी चाहिए।
लेखक- राकेश चौरसिया