हा रघुनन्दन !
टूट गई मेरे बिन चाहे
डोर नेह की
असमय ही बढ़ गई अचानक
पीर देह की
लगी सताने याद अनवरत
मन अकुलाए
लाख यत्न के बावजूद हिय
शान्ति न पाए
अहोरात्रि अब तुम्हें टेरता
कब आओगे
कब मम जीवन-पथ प्रशस्त कर
मुसकाओगे
अब पल-अनुपल बाट जोहता
करता क्रन्दन
हा रघुनन्दन ! हा रघुनन्दन !
हा रघुनन्दन !
महेश चन्द्र त्रिपाठी