हास्य ग़ज़ल
—–मज़ाहिया ग़ज़ल—–
वो रुलाते रहे हम हँसाते रहे
फर्ज यूँ दोस्ती का निभाते रहे
दोस्त मेरे बड़े ही वफ़ादार हैं
हम पटाते थे वो ले के जाते रहे
जैसे तैसे मेरी हो गई शादी तो
घर में भी आ के तिकड़ी भिड़ाते रहे
सोचिये घर से जैसे निकल जाऊँ मैं
दोस्ती का नया गुल खिलाते रहे
घर पे आ जाये साली अगर दोस्तों
घर के चक्कर हज़ारों लगते रहे
देख कर खूबसूरत जवां साली को
आह भरते ज़ुबाँ लपलपाते रहे
लाटरी उनकी लगती जो मैं ना रहूँ
वो मेरे बाद दावत उड़ाते रहे
ये दुआ देना “प्रीतम” मुझे दोस्तों
शायरी से तुम्हें जो हँसाते रहे
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती [उ०प्र०]