हाय हाय री आधुनिकी…
हाय हाय री आधुनिकी,
यह तूने क्या क्या कर डाला,
मानव से मानव के प्रेम को
तूने बिल्कुल छीन ही डाला,
हाय हाय री आधुनिकी,
यह तूने क्या क्या कर डाला।
नहीं रहे, सत संस्कार वह,
जिनको पा के यहां तक पहुंचे,
नहीं रहे, ज्ञानी गुणीजन वह,
जिनके साथ बहुत कुछ सीखे,
तूने अपना रूप दिखा कर,
सबको मोहित ही कर डाला।
नहीं रही गुड़ और सत्तू की,
सात्विक, शुद्ध, मिठास निराली,
खड़क रही है अब हर कर में,
पिज्जा संग साॅस की प्याली,
तूने अपना स्वाद चखा कर,
अस्पताल भी भिजवा डाला ।
पहले पढ़ता था पाठकगण,
हर पुस्तक को चित्त लगाकर,
अब तो सिर्फ, देखता भर है,
लैपटॉप में पेनड्राइव लगाकर
तूने झूठे स्वप्न दिखा कर,
सत्सुख से वंचित कर डाला ।
पहले नैतिक शिक्षा थी,
अनिवार्य, पठन के पाठ्यक्रम में,
लेकिन अब अनिवार्य एड्स की,
स्टडीज ही क्लास रूम में,
तूने अपना भय दिखलाकर,
सबको भयाक्रांत कर डाला ।
परिधानों में भी पहले सा,
गरिमामयी एहसास नहीं है,
चला चलन हाफ पैंट शर्ट का,
फुल में किसी को विश्वास नहीं है,
तूने अपना बदन दिखाकर
सबको शर्मसार कर डाला।
हाय हाय री आधुनिकी,
यह तूने क्या क्या कर डाला,
मानव से मानव के प्रेम को,
तूने बिलकुल छीन ही डाला,
हाय हाय री आधुनिकी,
यह तूने क्या क्या कर डाला ।
– सुनील सुमन