हाय रे मन बाबरा
डॉ अरुण कुमार शास्त्री ? एक अबोध बालक? अरुण अतृप्त
हाय रे मन बाबरा
नारी को समझा है जिसने
बहुत बड़ा है ज्ञान मिला ।।
उसके मुखरित मन को जाना
समझो तत्व अजान मिला ।।
घुट घुट कर जीवन जीती है
लेकिन कुछ न मुख से कहती है ।।
गुप् चुप गुप् चुप रह कर के वो
अपने ही शब्दों को खुद में पीती है ।।
समझ सके उस के भावों को
इसकी सब में समझ कहाँ ।।
मैंने माना जितना जाना
वो सब तो था निपट खोखला ।।
नारी को समझा है जिसने
बहुत बड़ा है ज्ञान मिला ।।
साथ रही वो बनी संगिनी
भाव समर्पिता समान रहा ।।
फिर भी जैसे अनजानी सी
पल पल इक भटकाव रहा ।।
भूलभूलैया ताल ताल तल्लिया
औचक भ्रमर सा जाल रहा ।।
नारी को समझा है जिसने
बहुत बड़ा है ज्ञान मिला ।।
उसके मुखरित मन को जाना
समझो तत्व अजान मिला ।।
उलझन सी रहती है तन मन में उसके
भय अनजाना घुड़ धुड करता है ।।
पीर पराई भूल न पाती
दर्द बो अपना किसे बताती ।।
हर रिश्ता अनजान मिला
हर रिश्ता अनजान मिला ।।
नारी को समझा है जिसने
बहुत बड़ा है ज्ञान मिला ।।
उसके मुखरित भावो को जाना
समझो तत्व अजान मिला ।।