हाथ में दीपक उठाकर चल दिए
है अंधेरों में कटी जिनकी उमर,
हाथ में दीपक उठाकर चल दिए।
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ताल लय जिनको नहीं कुछ भी खबर,
बेसुरे भी आज तबला पीटते।
खा रही संगीत को खुद की नजर
बिन सुरों के वो सुरों को खींचते।
भाल पर टीका लगाने को स्वयं
हाथ में थाली सजाकर चल दिए।
है अंधेरों में कटी जिनकी उमर,
हाथ में दीपक उठाकर चल दिए।
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छंद का अनुमान है नहिं ज्ञान है।
बोल में उनके महज अभिमान है।
बस लिफाफा देखकर गाते गजल,
और ये उनकी अनूठी शान है।।
चुटकुलों में तोलते सबको सदा,
झूठ की महफ़िल सजाकर चल दिए।
है अंधेरों में कटी जिनकी उमर,
हाथ में दीपक उठाकर चल दिए।।
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अब सियासत हो गयी ओछी बहुत
रोटियां सेकीं सदा ही राख में।
भाड़ में जाए जमाना ही भले,
और मिल जाए भले ही खाक में।।
खाक कुछ पढना नहीं आया जिन्हें
इक नया नाटक रचाकर चल दिए।
है अंधेरों में कटी जिनकी उमर,
हाथ में दीपक उठाकर चल दिए।
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ज्ञान का उपदेश देने हैं चले,
दीखते हैं वो बहुत मानुष भले।
हैं सरल सी चाल जीवन की मगर
जो सदा से ही रहे हैं मनचले।
है पता जिनको नहीं कुछ भी अटल,
टोलियां अब वो बनाकर चल दिए।
है अंधेरों में कटी जिनकी उमर,
हाथ में दीपक उठाकर चल दिए।।