हांथो में कुदाली
हांथो में कुदाली फावड़ा ले चल पड़ा है वो
पसीने से तर बतर अपनी थकान कभी न देखता है जो
फ़टे मेले कुचैले वस्त्र पहनकर भी बेपरवाह चलता है वो
मौसम बदले,कहानियां बदली न कभी फिर भी बदल सका है वो
तपती धूप गर्मी बारिश हो या अकड़न हरपल काम करता रहता है वो
युगों युगों से निर्माण करता फिर भी स्वयं के लिए छत न पा सका है वो
जाने कितने महल बनाये फिर भी आज कुटिया में रहता है वो
जमींदारी पूंजीपति सभी वर्ग में एक जैसा बना रह गया है वो
काश हो बने उसके लिए भी कुछ कानून नियम जो बदल सके उसकी स्थिति ,जिसका स्वप्न सदियों से देखता चला आ रहा है वो।।