हाँ मैन मुर्ख हु
हाँ मैन मुर्ख हु
शान्त्त चित्त मै घुम रहा
अपनी आश में जुम रहा
जुबां पर मैने रखी सच्चाई
क्रोध कोप से प्रीत हटाई
सोच-समझ की ना क्षमता अपनी,
बिना विचारे तीन कतता सबकी
शांत चिन्त ले, घूम रहा
अपनी आश में जुम रहा
अंधभक्त बन वो बुद्धिमान
दिमाग को छोड़ देता सम्मान
सोच-समझ से परे वो रहकर
टूटे आईने पर सदा करता वो अभिमान
शांत चिन्त ले, घुम रहा
अपनी आश में झूम रहा
निराधार होकर कर तर्क-वितर्क चलता है।
झूठ की थाम कलाई बिना फर्क वो चलता है l
हो खामोश पाने को झूठी सच्चाई से
अपने मन को बहलाने को खिलता है।
शान्त चिन्त ले घूम रहा
अपनी आश में जुम रहा,
जरिया खोजा मैने अपने दिमाग से
क्यो जगा रहा है अपने दिमाग से
अंधों में काणा राजा बन उनके दिमाग की
खरपतवार को हटाया मैने अपने फिराक से
शांत चिन्त ले घूम रहा
अपनी आश में जुम रहा
मुर्ख सभा में मैं महामुर्ख
अपनी बात की पेशकश करता l
परे वो रख दिमाग अपना बिना सुने
वो स्वार्थ से कशमकश करता l
शांत चिन्त ले घूम रहा
अपनी आश में झूम रहा
आया दौर अब. अन्तिम पड़ाव पर
कहलवाया मुझसे अपने दबाव पर
दिमाग से मेरा नाता नहीं भरी की सभा में कहलाया
मुझसे हाँ मैं मुर्ख हूँ अपने जवाब पर