#हाँ, #मैंने देखा है भगवान को
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★ #हां, #मैंने देखा है भगवान को ★
सबसे अधिक क्रोध मुझे कपूर भापा जी पर आ रहा था। कपूर भापा जी अर्थात कपूर भ्राताश्री अर्थात श्री रामप्रकाश कपूर।
मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री सत्यपाल लाम्बा अर्थात बड़े भापा जी और कपूर भापा जी घनिष्ठ मित्र थे। यों तो उन दोनों की मित्रता की अनेक कथाएं हैं परंतु, मैं यहां एक ही कहूंगा।
बड़े भापा जी और कपूर भापा जी का विवाह कुछ दिनों के अंतराल में ही हुआ था। एक दिन दोनों भ्राताश्री व भाभियों का फिल्म देखने का कार्यक्रम बना। अंतिम शो था रात नौ से बारह बजे का। फिल्म समाप्त होने पर धीरे-धीरे चलते बतियाते जब कपूर भापा जी के घर मांगट गली, हजूरी रोड तक फहुंचे तो वे अपने घर के भीतर नहीं गए। कुछ समय वहीं खड़े बतियाते रहे और फिर कपूर भापा जी बोले कि चलो तुम लोगों को घर तक छोड़ आते हैं। और जब हमारे घर धर्मपुरा, समराला रोड पहुंचे तो वहां भी कुछ समय ऐसे ही बातें करते रहे। तब बड़े भापा जी बोले कि रात बहुत हो गई है चलो आपको घर छोड़ आते हैं। इस तरह पूरी रात वे चारों बारी-बारी से एक दूजे के घर के चक्कर ही लगाते रहे और दिन निकल आया।
लेकिन, आज मुझे सबसे अधिक क्रोध कपूर भापा जी पर ही आ रहा था।
मैंने बड़े भापा जी के किसी भी परिचित अथवा मित्र को उनका नाम लेकर पुकारते हुए नहीं सुना था। सब लोग उन्हें लाम्बा जी अथवा लाम्बा साहब ही कहा करते थे। यदि किसी ने उद्दंडता दिखाई तो लाम्बा के साथ ‘जी’ अथवा ‘साहब’ लगाना भूल गया। और ऐसा भी कब किसने किया उसका नाम कहने के लिए मुझे स्मृतिमंजूषा को खंगालना होगा। लेकिन, कपूर भापा जी एकमात्र ऐसे सज्जनपुरुष थे जो बड़े भापा जी को सतपाल कहकर पुकारा करते थे। दूसरी ओर, कपूर भापा जी अपना नाम आर.पी. कपूर लिखा अथवा बताया करते थे। उनका पूरा नाम केवल वही लोग जानते थे जो बड़े भापा जी के भी परिचित थे। बड़े भापा जी उन्हें रामप्रकाश कहा करते थे। कपूर भापा जी छह फुट से कुछ अधिक लंबे, बलिष्ठ शरीर, बड़ी-बड़ी गोल आंखें, रौबीला चेहरा, ऊपर को उठी हुई घनी मूंछें देखकर किसी में इतना साहस ही नहीं बचता था कि वो उन्हें “कपूर साहब” के अतिरिक्त कुछ और पुकार सके। और आज, मुझे सबसे अधिक क्रोध कपूर भापा जी पर ही आ रहा था।
हमारा सान्निध्य पाने के लिए कपूर भापा जी जब हमारे मोहल्ले शिवाजी नगर में भूखंड लेकर मकान बनाने लगे तभी बड़े भापा जी शिवाजी नगर छोड़कर दूर सलेम टापरी रहने को चले गए। तब कपूर भापा जी ने कहा कि सतपाल यहां के लोगों से मेरी जानपहचान तो करवा दे।
शिवाजी नगर यद्यपि बहुत बड़ा मोहल्ला है परंतु तब पूरी तरह से बसा नहीं था। बड़े भापा जी ने बैंक मैनेजर श्री देसराज शर्मा, कन्या विद्यालय में कैशियर श्री बशेशरदास शर्मा, अकाऊंटेंट श्री अशोक शर्मा व कुछ अन्य लोगों को इकट्ठा किया और उन्हें बताया कि यह मेरे मित्र श्री रामप्रकाश कपूर जो आपके शिवाजी नगर में अपना घर बना रहे हैं, यह रामलीला क्लब के डायरेक्टर हैं। यदि आप लोग उत्सुक हों तो इनकी सहायता से शिवाजी नगर में रामलीला क्लब का गठन करके रामलीला का मंचन किया जा सकता है।
बड़े भापा जी की बात सुनकर सभी जन बहुत प्रसन्न हुए। “शिवाजी ड्रामेटिक क्लब” का गठन किया गया। तदुपरांत रामलीला व कुछ सामाजिक नाटकों का मंचन हुआ। पूरे लुधियाना नगर में धूम मच गई। क्योंकि उत्साह के अतिरेक में नगर की शेष सभी रामलीला मंडलियों की अपेक्षा हमारी मंडली चार-पांच दिन पहले ही आरंभ हो गई थी।
लुधियाना की कोई ऐसी रामलीला मंडली नहीं थी जो बड़े भापा जी व कपूर भापा जी को जानती पहचानती न थी अथवा जहां इनका भरपूर सम्मान नहीं था। इसी कारण पहले चार-पांच दिन नगरभर के कलाकार हमारे यहां आते रहे।
रामलीला समाप्त हुई। पर्दे आदि लगभग उतार लिए गए। तब प्रबंधक समिति ने बताया कि संग्रहीत धन की अपेक्षा व्यय अधिक हुआ है। और घाटा पूरा करने का कोई उपाय नहीं है। तब निर्णय लिया गया कि राम सीता लक्ष्मण व हनुमानजी की लंका से वापसी और अयोध्या में भरत शत्रुघ्न व माताओं द्वारा उनके स्वागत का आयोजन किया जाए। इसके लिए रामसीता लक्ष्मण व हनुमानजी को पूरे मोहल्ले में पैदल घुमाया जाए और मंच पर उनका स्वागत-सत्कार हो। इस प्रकार जब यह झांकी मोहल्ले की गलियों से निकलेगी तब श्रद्धालुजन जो दान-दक्षिणा देंगे उससे घाटा पूरा हो जाएगा।
मुझे यह बिल्कुल भी स्वीकार नहीं था। रात के समय चेहरे पर रंग पोतकर मंच पर अभिनय करना जहां साहस व गौरव की बात है वहीं दिन के उजाले में धनसंग्रह के लिए इस प्रकार गलियों में घूमना भिखारी की भांंति घूमने जैसा है। ऐसा मेरा विचार था।
मुझे प्रबंधन समिति पर बहुत क्रोध आ रहा था कि वे लोग अपनी जेब से घाटा क्यों नहीं पूरा कर लेते। अधिक क्रोध मुझे कपूर भापा जी पर था कि उन्होंने इस योजना का विरोध क्यों नहीं किया? लेकिन, मेरा क्रोध सौ गुना बढ़कर केवल उन्हीं तक सीमित रह गया जब मुझे यह पता चला कि वास्तव में यह योजना उन्हीं की थी।
मैंने अनमने होते हुए भी हमारे परिवार की परंपरा के अनुसार सिर झुका दिया कि यदि किसी बड़े ने कोई निर्णय ले लिया है तो उस पर किंतु-परंतु न करते हुए उसे प्रभु का आदेश मानकर स्वीकार किया जाए।
आगे-आगे ढोल ताशे बाजेवाले, पीछे पूजा का थाल, जो कई बार चढ़ावे के नोटों से भरा और उनके पीछे ओमकांत शर्मा हनुमानजी के वेश में। ओमकांत को तो रामलीला का ऐसा व्यसन था कि एक बार मालेरकोटला में बिजली निगम में नौकरी लगी और कुछ समय बाद ही जब रामलीला का समय निकट आया तब वो सरकारी नौकरी छोड़ आया था।
भाई जोगिंदर चोपड़ा राम के वेश में बहुत जंचते थे और उन्हें यों गलियों की परिक्रमा करने में भी कोई समस्या नहीं थी। विवाह हो चुकने के बाद भी उन्हें चाहनेवालों और चाहनेवालियों की कोई कमी नहीं थी। वैसे भी वे पुराने मंचकलाकार थे।
अक्षयकुमार उपाख्य कुक्कू सीता माता के वेश में तो सुंदर दिखता ही था वैसे भी उसका गोल चेहरा छोटी-छोटी आंखें और कोमल गात मोहक था। मैंने देखा कि वो भी इस मोहल्लाभ्रमण से प्रसन्न था।
जीवन में पहली बार रंगमंच पर केवल लक्ष्मण (और भरत) के चरित्र को ही नहीं सामाजिक नाटकों में विभिन्न पात्रों को भी मैंने अपने अभिनय कौशल से जीवंत करते हुए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरुस्कार अर्जित किया था (एक ही समय में लक्ष्मण और भरत के पात्रों को निभाने की एक अलग कहानी है, वो फिर कभी)। लेकिन, इस प्रकार जाने-पहचाने लोगों के बीच भिक्षाटन? मुझे बहुत खीझ हो रही थी।
मेरे पीछे प्रबंधन समिति के सदस्य व मोहल्लावासियों की बढ़ती भीड़ के बीच मेरे माताजी भी चल रहे थे। वे अत्यधिक प्रसन्न थे कि लोग उनके बच्चों की आरती उतार रहे थे।
माताजी प्रबंधन समिति सहित सभी कलाकारों से अपने बच्चों की भांति ही स्नेह रखती थीं। वे प्रसन्न हो रही थीं कि लोग उनके बच्चों को प्रणाम कर रहे थे। कोई फल खाने को लाता कोई दूध। हमारे मना करने पर लोग कहते कि दूध को केवल जूठा कर दें। उसके बाद वही दूध प्रसाद अथवा चरणामृत के रूप में लोगों में बंट जाता। मुझे यह भी उचित नहीं लग रहा था कि हम लोगों द्वारा जूठे किए हुए दूध फल अथवा मिठाई को लोग प्रसाद की भांति लेवें।
कपूर भापा जी कभी मेरे दाईं ओर व कभी बाईं ओर हो जाते। इस प्रकार वे हम चारों की सुरक्षा में लगे थे। तभी फिर से एक घर के सामने हमें रोक लिया गया। तब तक लोगों ने भक्तिभाव से इतना कुछ खिला दिया था कि अब कुछ भी खाने-पीने की सामर्थ्य मुझ में नहीं थी। मैं कपूर भापा जी से इस संबंध में कुछ कहने ही वाला था कि तभी देखा उस घर के भीतर से चार-पांच लोग एक वृद्ध व्यक्ति को लेटी हुई अवस्था में उठाए हुए ला रहे हैं। संभवतः वे चिरकाल से रोगशय्या पर थे। उन लोगों ने सबसे पहले हनुमानजी के चरणों में उनका माथा झुकाया। मैंने देखा ओमकांत पूरी गंभीरता से दायां हाथ उठाकर उन्हें आशीष दे रहा है। तदुपरांत उन्होंने भगवान राम व सीता माता से भी आशीष ग्रहण की। मैं विस्मय से देख रहा था कि जोगिंदर भाई जी व कुक्कू भी अपने चरित्र में पूरी तरह मग्न थे। उन कुछेक पलों में ही मुझे तब ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा शरीर ज्वर से तप रहा है। मेरी संज्ञा शून्य होती जा रही थी। मेरी आंखें मुंद रही थीं। कहीं मैं गिर न जाऊं यह सोचकर मैं कपूर भापा जी का आश्रय लेने को उद्यत हुआ ही था कि तभी देखा उस वृद्ध व्यक्ति को उठाने और मेरे पांवों तक उसका माथा छुआने वालों में भापा जी भी थे।
परंतु, चमत्कार अभी शेष था। हमारे साथ-साथ चलती मेरी माताजी जो कि अब तक यह देख-देखकर मुदित हुई जाती थीं कि उनके बच्चे लोगों द्वारा पूजे जा रहे हैं। यह दृश्य देखकर उन्हें झटका लगा।
माताजी जान गईं कि लोग उनके बच्चों के नहीं अपने आराध्यदेवों के श्रीचरणों में शीश नवा रहे हैं। वे शीघ्रता से आगे बढ़ीं। हनुमानजी, राम व सीता के उपरांत जब उन्होंने मेरे पांव छुए तो मेरी आंखें पल भर के लिए मुंदीं और फिर खुलीं तो सामने भापा जी मुस्कुरा रहे थे। आंखें नेहजल से भरी होने के कारण मैं पहचान नहीं पा रहा था कि सामने कपूर भापा जी खड़े मुस्कुरा रहे हैं कि बड़े भापा जी।
लगभग तीस-बत्तीस वर्ष की आयु थी तब उनकी। लेकिन, उनका अनुभव, मानवमन को पढ़ने की उनकी अद्भुत क्षमता और अपने कार्य के प्रति निष्ठा व विश्वास अनुकरणीय था।
आज मेरे आदरणीय उन दोनों मित्रों की पुण्यस्मृतियां न केवल मेरी अपितु मनुष्यों में जो मैत्री का भाव है उस सद्भाव की भी पूंजी हैं।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२ — ७०२७२-१७३१२