हाँ महिलाएं भी..
हाँ महिलाएं भी..
बहुत कुछ समझती हैं..
तुम्हारे शब्दों के चयन का भारीपन!
या.. हल्की सी.. यूं ही ..वाली भाषा!
तुम्हारे विचारों में अपनी परिभाषा..
हाँ महिलाएं ही..
कठिन समय में
नहीं छोड़ती उम्मीदों का साथ!
भले नहीं सजाती..
आश्वासनों का आकाश..
पर बिखेरती चलती हैं
तुम्हारी रातों में ..
अनेकों आशाओं भरे पलाश।
जताती नहीं अपना रोष..
जबकि अक्सर होती हैं वो निर्दोष!
फिर भी सह-सहकर भरती जाती हैं ..अपना अनुभव-कोष।
हाँ महिलाएं ही..
सृजन करती हैं भावी पीढ़ी का..
बन जाती हैं सहारा एकाकी पीरी का..
हाँ महिलाएं भी..
चाहती हैं बस आँचल के कोने भर का सुख!
और तत्पर रहती हैं बाँटने को ..पूरी कायनात का दु:ख।
हाँ महिलाएं ही..
करती चलती हैं समझौता
रिश्तों में..रूपये-पैसों में..
और अपनी ख्वाहिशों में..
सिखाती रहती हैं गृहस्थी का
हर रूप सँजोना..
चमकाती रहती हैं..
घर, रसोई ..
बगीचा और मन..का हर उपेक्षित कोना..
जिससे.. चमकते रहो तुम
आत्मविश्वास से!
भरे रहो.. प्रेम की मोहक सुवास से!
आगे बढ़ाते रहो नव-पीढ़ी को..
करके अनुभवों की साझेदारी ..
संसार के निर्माण में ..सुविकसित भागेदारी!
और कभी ना हारो ..तुम!
सुखों के अनुमान में..और
जीवन के संग्राम में ।
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
‘रश्मि लहर’
लखनऊ