हाँ बहुत प्रेम करती हूँ तुम्हें
हाँ बहुत प्रेम करती हूँ तुम्हें
शायद इतना कि अमाप है
मन मस्तिष्क से।
सब कुछ तुम पर बस
वार देना चाहती हूँ
यह मेरा बड़प्पन नहीं
बल्कि मेरा अस्तित्व
तुममें ही मिल गया
तो अब जो भी बाहर विरत दिखता
आकुलता उठती
इसी से सब वार देना चाहती हूँ।
बस लगता है मेरी निरर्थकता
शायद कहीं तुममें
सार्थकता पा जाए
तो मेरा होना सफल हो जाएगा।
कहीं मेरी प्रवृत्तियाँ
तुम्हें आकुल न कर दें
इसीलिए बड़े जतन से
अपने संस्कारों का परिष्कार करती हूँ
हाँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ।
पर कहीं न कहीं
चूक जाते ये जतन
दुःखा ही देती हूँ तुम्हारा मन
उस दुःख की टीस भेदती है मुझे
देखना ये टीस ही एक दिन
मुझे इतना संवार देगी
कि निष्कलंक हो जाऊंगी मैं
और एक दिन सौंपूंगी तुम्हें
परम सौन्दर्य से भरा हृदय
पूरी तरह से तुममें एकाकार
जहां तुम निर्भय विचर सको।