हाँ,जिंदा हूँ
——————————————-
कोई वजह नहीं है फिर भी जिंदा हूँ।
जिन्दगी तुम्हें जीते हुए शर्मिंदा हूँ।
काश! गीत, गजल की तरह जीता।
काश! करुण रस की तरह ही पीता।
वीभत्स रस से जीने में सनसनी है।
जियो तब ही जिन्दगी तनातनी है।
घुड़क-घुड़क जीने में नहीं कोई मजा।
कहते हैं जिये पर, ढोलक नहीं बजा।
ढोलक बजा तो सिर पे ताज सजेगा।
ताज,जो सजा तो वीर रस भी बजेगा।
वीरता को क्रोध चाहिए कि संकल्प?
बाजुओं में दम या प्रण है विकल्प।
रौद्र रूप में जिंदगी हमें ही डराता है।
जियेँ कि डरें कोई भी नहीं सिखाता है।
डरे तो जीत नहीं पाते,जीना चिढ़ाता है।
अद्भुद ढंग से मुझे जी भर रुलाता है।
सारी हँसी हमारी गिरवी है दु:ख के पास।
भयानक ढंग से गुदगुदाता है हो उदास।
जिंदगी का वीभत्स चेहरा चिता पर लेटा।
गोद-गोद कर जलाता है अपना ही बेटा।
घृणा बुराइयों से नहीं खुद से होती है।
मेरी जिंदगी मेरे होने पर ही रोती है।
खेद इतनी कि हो जाता है मन शांत।
जियेँ जिंदगी कैसे मैं ही हूँ विभ्रांत।
———————————————-
31/8/21