हवेली का दर्द
हवेली का दर्द है
कर वीरान हवेली को जब अपने ही छोड़ जाते हैं
बहुत करीब से देखा है
इन हवेलियों को दर्द से कराहते हुए
वक्त की झुर्रियों से बोझिल
बड़ी ख़ुद्दार हैं लेकिन दरकती हुईं
ये हैं जो दीवारें कई को बेरहम वक़्त ने गिरा डाला
पर कुछ अब भी खड़े रहने की
हैं ज़िद पर अड़ी हुईं कई कमरे – कई दीवारें
उम्र की मानिंद हैं ढल चुकीं
कई कमरों के छत भी उजड़ गए
कई कमरों में तो धूप अब
छत के सुराखों से ही हैं आती
ताखों पर जमीं हैं कालिख
धरे हैं कुछ तरसते तेल को टूटे दीये
कुछ चरमराते – टूटे हुए हैं चौखट
किसी अपने के इंतज़ार में
लिए दीवार का सहारा
मुँह बाए आज भी राह तकते हैं
दहशत में आ गया तब
अक्स जब अपना नज़र आया
क्या ये दर्द है हवेली का या
उम्र जब ढलेगी . . . . . . . . . . . .