हवा भी कसमें खा–खा कर जफ़ायें कर ही जाती है….!
हवा भी कसमें खा–खा कर, जफ़ायें कर ही जाती है
चलाकर होश की आँधी, रतजगा कर ही जाती है
रात–रात भर मलयज बहके
मदिरा सिंचित पलकें ढ़लकें
इंद्रजाल सम्मोहन बुनके
आँखों जादू जुगनू चमकें
क़ैदी रातें जो जुल्फ़ों की, मुजरिम बन ही जाती हैं
बाँधकर इश्क़ की ज़ंजीर, पकड़कर ले ही जाती हैं
चंदा जो अम्बर न निकले
तारों ने छिप करवट बदले
झींगुर क्षण सन्नाटा निगले
चढ़े मौन चीखों पर फिसले
फैली काली सी बदली मन, चाँदनी ढ़क ही जाती है
जगाकर दर्द सीने में, अश्क छलका ही जाती है
नाराज़ उदासी भी मुँह फेरे
संवेदन के घोर अँधेरे
बदन की तेरे खुशबू घेरे
होंठ बेवफ़ा बोल जो तेरे
सर्द सी बात जो मुश्किल, ज़ुबाँ पर आ ही जाती है
बंद पाती लिफ़ाफ़ों की, कहानी कह ही जाती है
–कुँवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍🏻
★स्वरचित रचना
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