हवा कुछ बेतुकी चलने लगी है
हवा कुछ बेतुकी चलने लगी है
फिज़ां भी मजहबी होने लगी है
जलाए थे दिये जो रौशनी को
उन्हीं से आग अब लगने लगी है
किसी ने हाल क्या पूछा हमारा
दिलों में आस अब जगने लगी है
गरीबी को हमारी मत छलो अब
हमारी वेदना बढ़ने लगी है
चलो अब बंद हो जाएं घरों में
यहाँ इन्सानियत मरने लगी है
अचानक उँगलियाँ क्यूँ उठ रही हैं
सियासत करवटें लेने लगी है
बचेगी किस तरह अब ये इमारत
यहाँ बुनियाद ही हिलने लगी है
पकाया जिन्दगी भर जिसने मुझको
मगजमारी से वही पकने लगी है
रचाए कृष्ण अब ये रास कैसे
यहाँ नौटंकियां सजने लगी हैं.
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद.