हर सीजन के फल लगते हो
हर सीजन के फल लगते हो
निर्मल गंगा जल लगते हो
तुम्हें समझते लोग बुढापा
तुम आने वाले कल लगते हो।
पार कर गये उमर बाप की
टपक रही क्यों लार आपकी
बूँद बूँद कर टपक रहा जो
वो सरकारी नल लगते हो।
देख बुढापा करें भरोसा
आँखें भी खा जायें धोखा
भोलेभाले आप नही हो।
चेहरे से निश्छल लगते हो।।
अटल इरादे सीधे सादे।
कुछ सच्चे कुछ झूठे वादे
जमे हुए तुम मजबूती से
बरगद से अविचल लगते हो।
देख बलायें तुम मचलाते
पके फलों से तुम गिर जाते
फिर भी झुकते लोग तुम्ही पर।
गुरुत्वाकर्षण बल लगते हो
अनुभव मोती की माला हो
बिना तेल की तुम ज्वाला हो
अनपढ़ हो कर भी दादा तुम
सब प्रश्नों का हल लगते हो।।
कोई राजा कोई जोगी
बन बैठे तुम सत्ताभोगी
चुटकी लेते सभी दलों की
फिर भी तुम निर्दल लगते हो।
आप बुढापे पर हो भारी
दिल पर चलती छुरी कटारी
गंगा जमना रोज नहाते
तब ही तो निर्मल लगते हो।
दाँत नही हैं बाल नही हैं
चिकने चिकने गाल नही हैं
इठलाते हो आज भी ऐसे
बच्चों से चंचल लगते हो।
दद्दा ऐसे कांप रहे हैं
लड़कों जैसे नाच रहे हैं
चलो सहारे लकड़ी के बल।
फिर भी तुम संबल लगते हो।।
✍️ अरविंद राजपूत ‘कल्प’