हर मंज़र
आज हर मंजर सहमा क्यों है
लगी है भीड़ जाने कैसी शहर में तेरे
फिर भी हर शख़्स तन्हा क्यों है
ढूंढ रही है राहें तुझको
फिर भी तू दरबदर भटक रहा क्यों है
शोर है अनसुना चारों तरफ
फिर भी दिल खामोश क्यूं है
खींच रही सांसों को उलझी सी इक डोर क्यूं है
बातें है किस्से है फिर भी हर रास्ता चुप सा क्यूं है
चीख रहा हर कोई जोर से फिर भी हर शख्स बहरा क्यूं है।
रुक गई थककर सारी बिरादरी
फिर लगा यहां ये मज़मा क्यूं है।
“कविता चौहान”
स्वरचित