हर बार पूछती हो ” कैसे हो ” -3
बम्बई
21 जून 1983
प्रिय ” स्वरा ”
पिछले कई एक दिनो से मैं तुम्हारे पत्र की प्रतिक्षा मे था ।
आज भी आधा दिन गुजर जाने के बाद मन निराश हो उठा था की इतने में डाकिए को दफ्तर मे आते देखा, उसने तुम्हारी चिट्ठी पकड़ाई और कुछ देर इस उम्मीद मे खड़ा रहा की मैं चिट्ठी खोल कर पढ़ लूं, और उसे ये सूचना दे दूं की सब कुशल है,शायद उसे भ्रम है की मै विवाहित हूं और वो परिवार की कुशलता जानना चाहता है ।
एक अपनत्व और आत्मीयता का रिश्ता हो गया है डाकिए से । मैने उसके सामने तुम्हारी चिट्ठी नहीं खोली, खैर-खबर बतियाने के बाद वो चला गया ,मैं अभी भी यही अपने टेबल पर बैठा हूं और अब यही से बैठा बैठा तुम्हे जवाब लिख रहा हूं और अभी वापस क्वाटर लौटते वक्त ही ये चिट्ठी पोस्ट भी कर दूंगा ।
जवाबी खत़ मिलने मे जो देरी होती है, वो विलंब वेदना बन जाती है, मुझे इस बार ये अनुभव हूआ है, इसलिए खत़ मिलते ही जवाब देना जरूरी लग रहा है ।
मेरी देरी से तुमने ये वेदना झेली है, इस खातिर मुझे माफ करना, आगे से जवाब देने में देरी नहीं होगी ।
तुम्हारा पत्र पढ़ते हूए मन कई बार द्रवित हुआ ।
काग़ज पर अपने मन का महासागर उढ़ेल कर भेजा है तुमने । मन में प्रेम और भावनाओ का ऐसा सागर संभाले बैठी हो जिसमे कभी ज्वार भाटा नहीं आता, मेरे लिए जो प्रेम तुम्हारे मन में है उसको कभी कम होता नहीं पाया मैने ।
बहुत सहजता से अपना प्रेम, अपनी आशंकाएं सब कुछ लिखे देती हो ।
प्रेम दर्शाने में , मैं कच्चा हूं , पर प्रेम को आदर और पोषण देना मुझे आता है । संवेदनाओ और भावनाओ के जिस डोर से हम आपस में जुड़े हूए है, वो डोर कभी ढीली नहीं पड़ेगी ।
परदेश से जब भी मैं लौटूंगा, अपने अंदर मैं उसी ” मलय ” को लेकर लौटूंगा, जिस मलय से तुमको प्रेम है । यह शहर चाहे जितना भी निष्ठुर हो, मेरे व्यक्तित्व को बदल देने को आतुर हो पर मेरे अंदर उस मलय को नहीं मार सकता जिसने तुम्हारे प्रेम को जिया है । दिन खत्म हुआ, दफ्तर के सब लोग अपने घर को निकल चुके है, मैं लगभग अकेला ही बैठा हूआ हूं, मुझे यहां बैठे हूए तुम्हारा वो अकेलापन महसूस हो रहा है जो तुम शायद वहां जी रही हो ।
दिन भर दफ्तर में इतनी गहमा गहमी रहती है की बगल में बैठे शख्स की आवाज भी सुनाई ना दे, पर सांझ का यह खालीपन ऐसा है की मुझे मेरे मन की प्रतिध्वनियां भी सुनाई दे रही है, शब्द गूजंते है यहां, ठीक वैसे ही जैसे मेरे दिमाग में तुम्हारा स्वर तुम्हारी बोली गूंजते हैं ।
रहने खाने की व्यवस्था के बारे मे पूछ रही थी तुम ।
रहने और ठहरने की कोई दिक्कत नहीं है, दफ्तर ने क्वाटर दे रखा है, बस रसोई खुद संभालना पड़ता है । तुम्हे आश्चर्य तो होगा पर मै अब अच्छी रसोई बना लेता हूं ।
तुम्हे हमेशा शिकायत रहती है की मै व्यवस्थित ढ़ग से जीवन नही जीता, अक्खड़ फकीरो सा जीता हूं । मुझ फकीर को गृहस्थ बना देना तुम्हारी चुनौती है , सिर्फ शिकायत करने से काम नहीं चलेगा ।
अंत मे बस इतना कहूंगा ,अनुराग दिखा पाने मे अनाड़ी हूं मैं , पर हमेशा के लिए तुम्हारे प्रेम मे हूं । तुम जैसी सहभागिनी के कारण ही मन कुछ बन जाने को प्रेरित होता है ।
अपना बेहद ख्याल रखना ।
मन मे किसी किस्म का अवसाद आने मत देना ।
उस गांव का उल्लास तुम्हारी खिलखिलाहट से ही है, लोग उमंग और उल्लास मे रहे इसलिए तुम मुस्कुराती रहना ।
एक खत़ में सारी बेचैनियां समेट लेना संभव नही लग रहा, इसलिए अब अंत कर रहा हूं, तुम्हारा जवाब मिलने के बाद आगे लिखूंगा ।
खत़ मिलते ही उत्तर लिखना ।
ईश्वर तुम्हे हमेशा हर्षित और आनन्दित रखें ” स्वरा “।
तुम्हारा प्रेम
” मलय ”
सदानन्द कुमार
18 जनवरी 2020