“हर बाप ऐसा ही होता है” -कविता रचना
गली के नुक्कड़ पे खिलौना बेचता,
टूटी चप्पल में भी सपनों को सहेजता ,
बिजली के बिल की लम्बी कतारों में खोता है ,
हर बाप ऐसा ही होता है ।
मेट्रो रेल के धक्कों से ,बचाता अपने को चोर उचक्कों से ,
घर के टिफ़िन बॉक्स के परांठे आचार के साथ ,
बॉस की झिड़क और गालियों की मार के साथ ,
पसीने की बूँदों में आशाएँ भिगोता है ,
हर बाप ऐसा ही होता है ।
ईएमआई की किस्तों के भंवर जाल में ,
क्रेडिट कार्ड के बिलम्ब भुगतान की रिमाइंडर काल में ,
जरूरतों की खातिर, स्वप्नों का बोझ ढोता है ,
हर बाप ऐसा ही होता है ।
आशाओं, आकांक्षाओं की डोर थामे,
सपने और नींद के बीच का शोर थामे ,
ढोता जिम्मेदारियों का पहाड़,
बेचैन करवटों की रातें सोता है ,
हर बाप ऐसा ही होता है ।
गली के नुक्कड़ में मोलभाव करता
संघर्ष की तपन में अपने पाँव जरता
परिवार की नैया को पार करता,
बच्चों के सपनो की धुप को छाँव करता ,
छुपा के आंसू ,तकिये से सर ढककर रोता है ,
हर बाप ऐसा ही होता है ।
रचनाकार –डॉ मुकेश ‘असीमित’