हर “प्राण” है निलय छोड़ता
निलय निलय निकास
नियम अडिग है
तन तो बस है एक मिट्टी का घरोंदा
“साँस ” के वास का अल्प ठिकाना
नए कुछ घर हैं मज़बूत खड़े
समय के जल – और हलचल से
कुछ हैं अब कमजोर पड़ीं
हैं तो कच्ची मिट्टी के घर ही
भ्रम में रहती साँसें
अपनी नए घरोंदों में रहतीं हुईं
अनजान इस सच्चाई से के
साँस ही प्राण – और प्राण ही साँस है
हर “साँस” की
अवधि है गिनी हुई
नियति की भी अजब बात है
कभी घरोंदों से वो है खेलता
कभी है तोड़ता चुपचाप उन्हें
काल का काल भी है निश्चित
होते ही ख़तम गिनती “साँस” की
प्रस्थान है निश्चित
हर “प्राण” है निलय छोड़ता
. . . . . . . अतुल “कृष्ण”