हर दिन सावन
हर दिन सावन
जब कभी थक जाती हूँ ,
हर तरफ़ से लाचार हो जाती हूँ
जब सब शून्य लगने लगे
सारी संवेदनाएँ ख़त्म होने लगे ,
तब तुम्हारी और रुख़ करती हूँ ,
ताकि फिर से नवजीवन का संचार हो सके।
जड़ हो चुकी शिराओं में फिर से तेरा एहसास लहू बन दौड़ने लगे ।
यूँ तो अकेली ही काफ़ी हूँ
भीड़ से भिड़ने के लिए
फिर भी तेरा होना एक तावीज़ है
हर दुखों से निजात के लिए
तेरा साथ रहना ही हर दिन सावन है,
तेरे प्रेम में भीग कर फिर से पल्लवित हो जाती हूँ ।
खिल खिल के महक जाती हूँ
महक कर फिर से सब और ख़ुशबू फैला आती हूँ ।
जब कभी थक जाती हूँ ।
डॉ अर्चना मिश्रा