हर गली शहर की।
क्या कोई भी शहादत ना बनी गरीब के खून की।
मिलती नही है कीमत उसके पसीने के बूंद की।।1।।
दर-दर भटकता रहता हूं आजकल यहाँ से वहाँ।
क्या कोई भी नसीहत है तेरी मेरे लिए सुकूँ की।।2।।
खूब जी लो तुम सब ज़िन्दगी गुनाह-ए-दौर की।
मिलेगी ना अब वह हिदायत खुदा-ए-रसूल की।।3।।
सब ही कातिल से लगते है मुझे दुनियां के बशर।
दिखती नही हैअब नज़ाफ़त किसी भी रूह की।।4।।
बड़ा दम्भ भरते थे वह अपने इश्क़ का हर घड़ी।
बात भी ना होती है अब मोहब्बत-ए-आरजू की।।5।।
जाकर देखा इक कयामत सी आयी थी हर सम्त।
बन गयी थी हर गली शहर की मौज-ए-खून की।।6।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ