“हर एक दीवाना सा लगता है”
अब तो हर अपना,बेगाना सा लगता है।
तेरा शहर भी गमों का,ठिकाना सा लगता है।।
तू थी शहर में तो, एक जमाना सा था।
तू गई छोड़कर तो,एक जमाना सा लगता है।।
हर एक गली,कूचा,नज़र,हर मुकाम यहाँ।
गमें उदास तेरे,हर एक दीवाना सा लगता है।।
फूल खिल रहे है मगर,रोज दुश्मन के यहाँ।
पानी सींचने वाला कोई, अपना सा लगता है।।
मिलती थी ख़ुशी’जय’,तेरे नाम से बुलाते थे।
अब बुलाए तो बस,जैसे सताना सा लगता है।।
हर तड़प, हर कसक, और वीरां जिंदगी को।
तेरी जुदाई में बस,आंसू बहाना सा लगता है।।
रचियता
संतोष बरमैया”जय”