हरि द्वार
अस्सी बरस की बुधिया,
चारपाई पर रजाई से झांकती,
रह-रह कर खांसती,
आज जमकर पाला पड़ा है,
जाड़ा मुंह बाए खड़ा है।
सफेद हो गई खड़ी कोंपलें
टपक रहे खगों के घोंसले।
दूर सड़क पर सन्नाटा पसरा,
कदम-कदम पर घना है खतरा।
मारा गया था सुखिया कल ही,
जा रहा था वह पैदल ही,
गाड़ी ने टक्कर मारी थी,
जिंदगी उसकी तब हारी थी।
बहू-बेटा खुशहाल हों घर में,
दुआ मांगती वह वृद्ध-आश्रम में।
लाजो, पारो, सुखवंती, मीरा,
सखियां हरती उसकी पीरा।
नया उसे परिवार मिला है,
अपनों से रत्तीभर गिला है।
यह जाड़ा क्या रंग लाएगा,
कहीं प्राण हर ले जाएगा।
सोचे बुधिया, करे विचार,
जाना है अब तो हरि द्वार,
उमर हो गई अस्सी पार।