हम हार गए अपनों से ही
मानव बनने की जो सीख
विश्व को किसने दी
हाथ जोड़ और पाद नमन
विश्व को पहले किसने दी
ऊंचे बनने वाले हम ही
हार गए हम अपनों से ही …
विश्व जानता विश्व मानता
हमने ही नई दिशा दी
नाश करने वालों से ही
हमने माँ प्रकृति बचा दी
ओ सोच ऊंची रखने वाले
हम हार गए अपनों से ही …
बाबा भारती की वो सीख
हार जीत में बदल गई
आंखों में संताप के आंसू
मानवता की सीख दे गई
हम अपनी ही हठधर्मिता से
हार गए हम अपनों से ही…
जब से शिक्षा चौराहे पै
खुली और नंगी बेच दी
संस्कारों का दमन हो गया
बुद्धि का विकास कहीं
महामानव बनने वालों से
हम हार गए अपनों से ही …
कहां गया वो ह्रदय विवेक
मन ही वो चित्कार उठी
आंखों प्यारी गुड़िया से ही
मन विकार क्या वो सही
दुष्कर्मी करने वालों से
हम हार गए अपनों से ही …
गलत हुआ फिर वो आंदोलन
सरकारे बैठी चुप्पी साध
कैसी हो गई सोच पता नहीं
खुम्मारी में ही आँखे डुब पाध
हम जीत गए संसार से पर
हम हार गए अपनों से ही
न्याय तंत्र अब कहां गया
फीस करोड़ों वकील घर रहा
पूंजीपतियों का दलाल
उन ही के वह पास रहा
आत्मा लिपटी भौतिकता से
हम हार गए अपनों से ही
दुख होता है क्या कर सकते
जिओ तुम मौज उड़ाओ
आतम कंपन होता ही है
मन बेचैन की स्थिति
पता नहीं अब क्या होयेगा
पर सच है
हम हार गए अपनों से ही …
पुत्री सम बेटी को भी वो
नजरों में विकार रहा
चिपटे बस उस में ही वो
मन में ही ये भाव रहा
आंखों पर मन कायरता से
हम हार गए अपनों से ही …..
सभ्य बनने की वो ललक
अर्ध नंगी व्यापार रहा
कामुकता की पराकाष्ठा
डॉलर का बस खेल रहा
अखबारों में खुली तस्वीरें
हम हार गए अपनों से ही
किसको समझाएं क्यों समझाएं
चहुंओर डिग्रियां घूम रही
बर्बरता की सारी हदें
उन से ही शुरुआत हुयी
शिक्षित बनने वालों से ही
हम हार गए अपनों से ही
अंत बात सच्चाई की ये
सरकारे जोड़-तोड़ के बन रही
मिला है जीवन मजा लेंगे
बस अब ये ही प्रवृत्ति रही
सुसंस्कार चौराहे पर ही
बदनाम यूं ही घूम रही
कुछ भी कह दो यारो पर
हम हार गए अपनों से……
सद्कवि
प्रेम दास वसु सुरेखा