हम स्वार्थ से वशीभूत हैं!
हम स्वार्थ से वसीभूत हैं,
अपने सुख-दुख तक सीमित हैं,
अपने कष्ट हमसे सहे नहीं जाते,
दूसरों के कष्ट हमें ना सताते।
ऐसा युग युगांतर से ही रहा है,
एक ही पिता के पुत्रों में युद्ध हुआ है,
देवताओं और असुरों को देख लो,
दानवों और मानवों में देख लो।
ये देव और असुर,
एक ही पिता की संतान हैं
ऋषि कश्यप इनके पिता हैं,
माताएं भले ही अलग-अलग हैं,
दिती-अदिति भी एक ही पिता की पुत्रियां हैं,
फिर भी इनके स्वार्थ ही तो टकराए,
देव और दानव व असुर आमने-सामने आए।
माना कि दानव और असुरों में कुछ साम्य रहा,
लेकिन देवों ने कब यह ख्याल किया,
यह भी तो हमारे ही भाई हैं,
इनके भी तो कुछ अधिकार हैं।
बस यही तो आज भी हो रहा है,
हर कोई अपने ही पक्ष में सोच रहा है,
कोई भूख से आज भी हलकान हैं,
कितने ही आज भी बेघर ही रहते हैं,
कितने ही आज भी रात भर सोते नहीं हैं,
लेकिन हम उनके लिए कुछ करते नहीं हैं,
क्यों कि उनसे हमारा कोई संबंध नहीं है,
ठीक है वह हमारे कुछ भी नहीं,
किन्तु जो उनके होने का भरोसा दे आते हैं,
वह भी कहां उनको अपना मानते हैं,
शायद इसीलिए कि अब अपना तो काम चल जाएगा,
अब उनसे मिलने का अवसर पांच वर्ष बाद आयेगा।
इस महामारी के समय में कोई सामने आया है,
जिन्हें हम ही लोगों ने, अपनों से असहमत होकर जिताया है,
तब कितनों ने हमें समझाया था,
जात-पात से ऊपर उठकर अपने मत का प्रयोग करो,
धर्म-संप्रदाय से हटकर अपना वोट करो,
अपने प्रत्याशी को अपने सुख-दुख में साथ रखकर देखो,
लेकिन हम ठहरे परंपरा वादी,
हमने राष्ट्रीय अस्मता को ध्यान में रख वोट दिया था,
आज वह हमारा प्रतिनिधि जाने कहां है,
एक बार भी तो उसकी ओर से हमारी खोज खबर नहीं हुआ है,
उसका काम चल गया तो उसका दीदार नहीं हुआ,
हमें भी तो उसकी कमी का अहसास अब हुआ।
आखिर यह सब स्वार्थ से वसीभूत होकर ही तो हो रहा है,
और यह भी सोलह आने सच है कि, , हमें भी इसका अहसास,
आज इस कष्ट के वक्त ही तो हो रहा है,
और यही स्वार्थी होने का प्रतीक है,
जो हमसे विमुख होकर रह गया वह अपना नही,
जो हमारे लिए है,वहीं हमारा है और यही ठीक है।।