हम पुलिस वालों का ये कैसा
हम पुलिस वालों का यह कैसा है रोज़गार
क्यों हमसे बेरुखी रखती रोजाना अख़बार
हम पुलिस वालों का…..
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दिल की दौलत लूटाकर भी देख ली हमनें
पर ठुकराते अपने देखे मिलती है फटकार
हम पुलिस वालों का…..
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काश के कोई हमारे भी आसुँ पोछने आता
कोई कहता कि बिना ईद चाँद हुआ दीदार
हम पुलिस वालों का…..
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माना कि इश्क़ करना किस्मत में नहीं हमारी
पर कोई तो है जो करता हमारे लिये भी श्रृंगार
हम पुलिस वालों का……
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कभी दिवाली कभी होली कोई ईद नहीं आती
बेदर्द जमाना ना देखें फ़िके पड़े है बिन त्यौहार
हम पुलिस वालों का ……
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वो जमाना भी याद बचपन मां बाप सँग बीता
ऐश बाप के पैसे से ,नहीं ख़र्च उठा पाता मैं यार
हम पुलिस वालों का…….
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गिरते गिरते जाने कितना गिरने लगे थमते नहीं
बदुआ कोई फ़क़ीर दे गया आँखें हुई अश्क़बार
हम पुलिस वालों का …….?
अशोक सपड़ा हमदर्द दिल्ली से