हम नारियाँ
आओ
आज कुछ कर जाएं
नीलाभ व्योम पर
बिखर जाए
उलीच डालें
हम आज पयोधि
नदियों का प्रवाह बदल डालें
मुरझाएं पुष्पों को दे सुरभि
वेग मारुति का हम थामें
पर्वत से पथ स्वयं निकालें
क्या वर्षा सर्दी क्या घामें
गढ़ें चलो एक नव दिनकर
जिसकी थामें हम बागडोर
सार्थक करें यह उक्ति प्यारी
कि नारी कभी न हारी
हर रोते को हम संभाल लें
और पौंछ दे उसके अश्रु
पीछे मुड़ कर कभी न देखें
हर मुश्किल से हों रूबरू
फेंक डालो अबला की उपाधि
भय और भीरुता की बने समाधि
बंजर को खलिहान है करना
उजड़े को उद्यान है करना
सृष्टि के प्रारंभ से आज तक
नारी थी और रहेगी सदा अग्रणी
यूँ ही नहीं वेदों ने उवाचा
नारी तो है नारायणी ।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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