हम चले आए हैं अपना घर छोड़कर
वो गली वो सड़क वो शहर छोड़कर
हम चले आए हैं अपना घर छोड़कर
जिनके साए में बचपन जवाँ था कभी
आए वो जेठ की दोपहर छोड़कर
रोजी-रोटी की ख्वाहिश में बेबस कदम
आए चाहत की नाजुक डगर छोड़कर
बाँहों में जो सिमटकर भिगोते रहे
टूटे उन आँसुओं की कद़र छोड़कर
भीगी पलकों से माँ ने कहा बेटा जा
बूढ़े माँ-बाप की तू फिक़र छोड़कर
खो गया भीड़ में जाने ‘संजय’ कहाँ
जिन्दगी का सुहाना सफर छोड़कर