हम किनारे पे लड़खड़ाए हैं
बारहा ये ही ग़म उठाए हैं
हम किनारे पे लड़खड़ाए हैं
हमने ख़ामोश रह के देखा है
आज भी वो ही तमतमाए हैं
सिर्फ़ झांका था उनकी आँखों में
तब से वापिस न होश आए हैं
जानो-दिल ज़िन्दगी वो हैं मेरी
कैसे कह दूँ हुये पराए हैं
यूँ ही गुज़री है उम्र ये सारी
दिल के अरमां निकल न पाए हैं
डूब जाते हैं ख़्वाब अश्कों में
हमने अपने भी आज़माए हैं
पास बस्ती कोई जली होगी
तब ही बादल धुएं के छाए हैं
आज भी मिल गई है पीने को
आज घर देर से वो आए हैं
मौत आती तो सब्र हो जाता
ज़िन्दगी के मगर सताए हैं
इश्क़ ‘आनन्द’ पुरख़तर दरिया
जो भी डूबे वो पार आए हैं
– डॉ आनन्द किशोर