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1 Nov 2020 · 1 min read

हम किनारे पे लड़खड़ाए हैं

बारहा ये ही ग़म उठाए हैं
हम किनारे पे लड़खड़ाए हैं

हमने ख़ामोश रह के देखा है
आज भी वो ही तमतमाए हैं

सिर्फ़ झांका था उनकी आँखों में
तब से वापिस न होश आए हैं

जानो-दिल ज़िन्दगी वो हैं मेरी
कैसे कह दूँ हुये पराए हैं

यूँ ही गुज़री है उम्र ये सारी
दिल के अरमां निकल न पाए हैं

डूब जाते हैं ख़्वाब अश्कों में
हमने अपने भी आज़माए हैं

पास बस्ती कोई जली होगी
तब ही बादल धुएं के छाए हैं

आज भी मिल गई है पीने को
आज घर देर से वो आए हैं

मौत आती तो सब्र हो जाता
ज़िन्दगी के मगर सताए हैं

इश्क़ ‘आनन्द’ पुरख़तर दरिया
जो भी डूबे वो पार आए हैं

– डॉ आनन्द किशोर

10 Likes · 2 Comments · 440 Views
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