हम और तुम
आवाज़…. मेरे मन की… ?
हम
बैठे रहते हैं दरवाजे पर
आस लगाए
हर एक आहट को सुनते हैं
बड़े गौर से
कि शायद
तुम आए…..
और तुम
आते हो और आकर
जाने कब चले जाते हो
दबे पांव
और हम
बैठे ही रह जाते हैं
आस लगाए…
हम अपने कामों में
मशगूल रहते हैं
और टकटकी लगाए
बस तुम्हें देखते हैं
कि शायद
तुम कुछ कहो..
पर तुम
अपने ख्यालों में मस्त
देखते ही कहां हो
कि कोई बैठा है तुम्हारे लिए
नयनों में हजारों
दिए जलाए….
जब पास होते हैं
वह पल कुछ खास होते हैं
उन पलों में हम तुम्हारा
इंतजार करते हैं
तुम कहते हो
बस उतना
जितना तुम चाहते हो
पर वह नहीं कहते
जो हम सुनना चाहते हैं
जो हमारे कानों में
इश्क घोल सके
खो जाते हो
अपने सपनों में
क्यों सोच भी नहीं पाते
कि और भी कोई बैठा है
अपनी पलकों में लाखों
सपने सजाए…..
और सुबह तो
जैसे तुम्हारे लिए
मुंहमांगी मुराद है
कि बस पीछा छूटा
अब तो कोई बहाना
नहीं होगा बनाना
शायद कुछ ऐसा ही खयाल
आता होगा तुम्हारे मन में
पलटकर नहीं देखते
कि क्या रह गया पीछे
अकेलेपन में
बस जाना है तुम्हें तो
क्या फर्क पड़ता है पीछे
कोई हंसे या
नीर बहाए….
अब भी
नहीं छोड़ा है हमने
उम्मीद का दामन
बस एक गुजारिश है
एक बार पढ़ लो
हमारा मन
एक बार तो जागो
मेरी आंखों में झांको
एक बार तो कोशिश करो
हृदय तक पहुंचने की
तुम दस्तक तो दो
खोल रखे हैं हर द्वार
तुम्हारे ही लिए..
आओ अब तो
ले लो आगोश में
भुला दो दुनिया के सारे गम
रोक लो बहने से
इन ‘मासूम’अश्कों को,
लेकर हाथों में हाथ
आँखों में आँखें डाले
आओ ना
संग बैठे दो पल
तुम और हम
और कुछ न बोलें
बस मुस्कुराए…
मुदिता रानी ‘मासूम’