“हम आंखों से कुछ देख नहीं पा रहे हैं”
हम आंखों से कुछ,
देख नहीं पा रहे है,
हमारे आंखों में खून,
कहां से आ रहे हैं।
हम अपने ही कलेजे के,
सौ टुकड़े कर रहे हैं,
लहू से सींचकर मिट्टी को,
दूषित कर रहे हैं।
हम्हीं हैं जो नफ़रत के,
बीज बो रहे हैं,
हम्हीं है जो फक्र से,
ज़हर भी काट रहे हैं।
बहते आंखों के आंसू से,
दामन तेरे भीग रहे हैं,
लानत है कि वे तुझे,
मज़हबी नारों में बांट रहे हैं।
करते अपमानित तुझे,
तेरी अस्मिता से खेल रहे हैं,
अपने राष्ट्रभक्ति का,
ये कैसा हूनर दिखा रहे है?
गद्दारों तेरे नमक हरामी पर,
हम तरस खा रहे हैं,
आखिर हमें आज-कल
नींद क्यूं नहीं आ रहे हैं?।।