हम अपना भार उठाते है
हम अपना भार उठाते है
जीवन की गाडी ठीक नही
पर उसे रोज बनाते है |
कभी दाल भात मिल जाता है
कभी सूखी रोटी खाते है|
हम अपना भार उठाते है
कंधे पर मेरे गुरु भार है
परिवार से खूब प्यार है
पढने लिखने की उम्र मे
रोजी रोटी कमाते है
हम अपना भार उठाते है
कौन देखता मेरी दुर्दशा
बर्वाद करती परिवार को नशा
सभी देखते रोज तमाशा
उर मे छाले सहलाते है
हम अपना भार उठाते है
मत पूछो क्या क्या सहता हूं
घर नही खुले मे रहता हूं
चुुप रहकर सब कुछ सहता हूं
हम गरीब कहलाते है
हम अपना भार उठाते है
विन्ध्यप्रकाश मिश्र