हमे अपने रिश्तों से इतनी उम्मीद क्यों होती हैं कि सामने वाला
हमे अपने रिश्तों से इतनी उम्मीद क्यों होती हैं कि सामने वाला हमारे
बिना कुछ बोले ही हमारी हर बात समझ जाए। वो हमें हमारी तरह
से स्वीकार करे। ऐसा ज़रूरी नहीं हैं कि हर शख्स एक जैसा हो,
एक ही जैसा सोचता हो और फिर एक ईगो हम ही क्यों बोले वाला।
अगर किसी से कुछ ना बोल के दिनभर ध्यान उसी की बात का हैं
तो क्या ही मतलब हैं चुप्पी का। अपनी बातें बेझिझक बोल दी जानी
चाहिए अगर किसी को स्वीकार होगी तो भी ठीक और ना हुई तो
इस तसल्ली के साथ तो रहेंगे हां शायद हमे ये मंज़ूर ही नहीं था ।
बोल देने से फैसले होते हैं और ना बोले से सिर्फ फासले।
#मेरीग़ज़ल