हमेशा तुम्हारी
भूली बिसरी यादें और
यादों का एक तहख़ाना,
तहख़ाने के कोने में
उन यादों की एक अलमारी।
अलमारी के दरवाज़े पे
ग़म का एक मोटा ताला,
और अलमारी के कोने में
ख़त तुम्हारा आख़िरी।
आख़िरी ख़त के आख़िर में
था तुम्हारा नाम नहीं,
बस तुमने लिक्खा था वहाँ
‘तुम्हारी, सिर्फ़ तुम्हारी’।
काश वहाँ तुम लिख पाती
एक और लफ्ज़ तुम जोड़ती,
‘सिर्फ़ तुम्हारी’ के साथ
‘हमेशा’ भी तुम लिख पाती।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’